हमारी न्यायपालिका यानी एक झमेला बनकर रह गई है। जिसके चलते न्यायदेवता भी शेख हसीना की तरह भागना चाहते होंगे। क्योंकि देश जिनसे निर्भीक होकर न्याय करने की अपेक्षा करता है वे तथाकथित रामशास्त्री डरे हुए हालात में जैसे-तैसे न्यायदान कर रहे हैं। इसलिए देश का संविधान और कानून खतरे में आ गया है। शिवसेना विधायकों की अयोग्यता से जुड़ा मामला मुख्य न्यायाधीश की पीठ के समक्ष कम से कम तीन साल से चल रहा है और हर दिन ‘तारीख पर तारीख’ का शतरंज खेला जा रहा है। ६ तारीख को शिवसेना के वकील ने अत्यंत विनम्रता से अदालत से कहा, ‘माई लॉर्ड, क्या आप हमें जरा नजदीक की तारीख दे सकते हैं? क्या कोई इससे भी नजदीकी तारीख दे सकते हैं तारीख?’ जिससे मुख्य न्यायाधीश को गुस्सा आ गया और उन्होंने कहा, ‘एक दिन के लिए यहां मेरी जगह बैठो। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि तुम अपनी जान हथेली पर लेकर भाग जाओगे।’ मुख्य न्यायाधीश का यह बयान हमारी न्याय व्यवस्था की कमजोरी को दर्शाता है। न्याय का कार्य संविधान या कानून की रक्षा करने का है। अर्थात भारत की स्वतंत्रता और संप्रभुता की सुरक्षा सर्वोच्च न्यायालय के हाथ में है। संक्षेप में कहें तो यह महान राष्ट्रीय सेवा का कार्य है। यह कार्य करते हुए मुख्य न्यायाधीश का इस तरह डगमगाना कैसे चल सकता है? ‘आओ और मेरी कुर्सी पर बैठो। भाग जाओगे।’ उनका ऐसा कहने का मतलब संबंधित मामले का फैसला कानून के मुताबिक और निष्पक्ष तरीके से न करें, इसलिए सुप्रीम कोर्ट पर दबाव है ऐसा लोगों को लगेगा। ऐसे दबाव में न्यायपालिका संविधान की रक्षा कैसे करेगी? सच तो यह है कि न्यायाधीश ने स्वयं इस पेशे को स्वीकार किया है। किसी को भी पकड़ खींचकर न्यायदान के लिए बिठाया नहीं गया है। कानून और स्थिति के पक्ष-विपक्ष का अध्ययन करने के बाद ही फैसला करना होता है। इतिहास में न्यायमूर्ति रामशास्त्री ने प्रलोभन, दबाव, दहशत की परवाह न करते हुए अपने मालिक यानी राघोबा पेशवा को मौत की सजा सुनाई थी और उन्हीं रामशास्त्री संकल्प के आदर्श और गौरव की बात आज भी महाराष्ट्र करता है। देश के मुख्य न्यायाधीश को महाराष्ट्र की इस महान न्यायिक परंपरा के बारे में बताने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वे उन्हीं रामशास्त्री की भूमि से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निडर और निर्भय न्यायाधीश ने जो पैâसला सुनाया था और जिसकी वजह से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपना पद खोना पड़ा, लेकिन उस न्यायमूर्ति का कोई भी बाल बांका नहीं कर सका। इसलिए मौजदा न्यायवृंदों के इतने डगमगाने की कोई वजह नहीं। जो लोग यह सोचते हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद हमें पद, गाड़ी और घोड़े की व्यवस्था मिलनी चाहिए, वे अपना कर्तव्य निभाते हुए डगमगाते हैं और इससे देश को बहुत हानि होती है। किसी भी देश में जब ऐसी डगमगानेवाली न्यायपालिका बनाई जाती है तो लोगों की सहनशीलता की अति हो जाती है। ऐसे ही अति के चलते बांग्लादेश की जनता संसद और सुप्रीम कोर्ट में घुस गई है। शिवसेना विधायकों की अयोग्यता को लेकर मामला मुख्य न्यायाधीश के समक्ष चल रहा है और क्या कल नई विधानसभा के अस्तित्व में आने पर यह खोकेबाज विधायक अयोग्य करार दिए जाएंगे? ये सवाल जनता ने पूछा है। जिस तरह से हिंदूहृदयसम्राट बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना और चिह्न धनुष्य बाण ऐरे-गैरे दाढ़ी वाले नत्थूलाल के हाथों सौंपकर, संविधान की दसवीं अनुसूची की हत्या कर दी गई:, क्या उस भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाकर न्याय नहीं मांगना चाहिए? अगर उम्मीद करते हैं कि यह न्याय समय पर मिले तो अदालत के इस तरह डगमगाने की कोई वजह नहीं है। हमारे मुख्य न्यायाधीश उत्तम भाषण देते हैं और न्यायपालिका में देरी को लेकर बार-बार चिंता व्यक्त करते हैं। जो लोग वास्तव में ऐसी चिंता महसूस करते हैं उन्हें भाग जाने की बात क्यों करनी चाहिए? यदि मुख्य न्यायाधीश इस तरह डगमगा गये, तो माईबाप जनता को किससे न्याय की उम्मीद करनी चाहिए? देश में राज्य व्यवस्था तानाशाही तरीके से चल रही है और अगर राज्य व्यवस्था न्यायपालिका पर दबाव डालकर मनमर्जी के राजनीतिक फैसले करा लेगी तो लोग सोचेंगे कि देश की आजादी की लड़ाई और संविधान निर्रथक हो गया। मुख्य न्यायाधीश की दुर्बलता हतबलता देश की चिंता और कानून की चिंता का विषय है। न्याय के देवता यह सब देखकर रो सकते हैं, लेकिन न्याय के देवता, रोइए मत और भागिए मत। भारत की जनता उन्हें विश्वास के साथ बताना चाहती है कि आपके उद्धार का दिन निकट है। चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ साहब थोड़े घुटे हुए लग रहे हैं। उनकी यह घुटन देश को बहुत महंगी पड़ेगी। माई लार्ड, वास्तव में क्या हो रहा है? किसका दबाव चल रहा है इतना निडर होकर देश को बताएं!