सागर तट पर लहरों के
टकराने की नियति है
तो भी सिक्ता, लहरें
अपना शाश्वत संबंध निभाते हैं।
प्रत्येक लहर संग अपने जीवित-मृत
कर्कट, सीप सिक्ता पर बिछा जाती।
कुछ जीव संयोग से
पुनः सागर जल में पहुंच जाते।
जाते-जाते लहरें एक नई छाप
बालू पर छोड़ जाती।
इसी छाप पर नन्हें मीन ,शंख , घोंघे
जल पाखियों का आहार बनते।
बहुरंगी छवि,आकार के जीवों को
लहरें तटों पर पटक जाती।
तट पर बंधें
डोंगी,नौकाएं, पोत
लहरों से कभी जीतते,कभी हार मानते।
तट की सिक्ता सागर जल को
अपने उर में समाती
अगले क्षण शुष्क हो
इधर- उधर बिछ जाती।
कण कण में विभाजित बालु
क्यों नहीं जुड़ बनती चट्टान
करती सामना लहरों का बचा लेती अपना सम्मान।
तट पर लहरें
सूर्योदय -सूर्यास्त में स्वर्णिम बनती,
रात पूर्णिमा में रुपहली चादर ओढ़ती।
कभी शीतल कभी तपती सिक्ता
देती मुझे निमंत्रण
नहीं अस्वीकृत होता तट की
लहरों का मधुर आमंत्रण।
बेला विरदी।