सामना संवाददाता / मुंबई
विश्वविद्यालय द्वारा सीनेट की हालिया बैठक में प्रस्तुत की गई जानकारी के अनुसार मुंबई विश्वविद्यालय (एमयू) से एफिलिएटेड ३० प्रतिशत से अधिक कॉलेजों में नियमित प्रिंसिपल नहीं हैं। एमयू के अंतर्गत ८७८ कॉलेजों में से २७० का नेतृत्व वर्तमान में अस्थायी या ‘प्रभारी’ प्रिंसिपल द्वारा किया जाता है। विश्वविद्यालय का कहना है कि लगभग १७० कॉलेज में एक साल से अधिक समय से कोई नियमित प्रिंसिपल नहीं है। फुल टाइम प्रिंसिपल की अनुपस्थिति उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंकि वे राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के अनुसार अपने कार्यक्रमों को फिर से तैयार करना शुरू कर रहे हैं।
हालांकि, विश्वविद्यालय ने नियमित प्रिंसिपल के बिना कॉलेजों का कोई वर्गीकरण प्रदान नहीं किया। राज्य सरकार के एक अधिकारी ने कहा कि इनमें से अधिकतर संस्थान संभवत: गैर-सहायता प्राप्त कॉलेज हैं। अधिकारी ने कहा, ‘हमने लोकसभा चुनाव के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होने से पहले सहायता प्राप्त कॉलेजों में प्रिंसिपलों की नियुक्ति के अधिकांश प्रस्तावों को मंजूरी दे दी है।’ जबकि अनुदान प्राप्त कॉलेजों को राज्य से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों को केवल विश्वविद्यालय की मंजूरी की आवश्यकता होती है।
शिक्षकों की भी है कमी
कॉलेज प्रिंसिपल के साथ-साथ ही कई सालों शिक्षक का यही हाल रहा है। सरकारी कर्मचारियों पर खर्च पर अंकुश लगाकर राज्य में फाइनेंशियल स्टेबिलिटी लाने के प्रयास में राज्य ने २०१५ में नए पद बनाने और प्रिंसिपलों सहित मौजूदा पदों को भरने पर रोक लगा दी थी। तीन साल बाद २०१८ में सरकार ने यह प्रतिबंध हटा दिया, जिससे प्रिंसिपलों के सभी रिक्त पद और शिक्षकों के लिए ४० प्रतिशत रिक्तियां भरने की अनुमति मिल गई। २०२० में राज्य के फाइनेंस डिपार्टमेंट ने एक बार फिर कोविड -१९ महामारी से उत्पन्न फाइनेंशियल दिक्कतों के कारण भर्ती प्रक्रिया को रोक दिया था। एक साल बाद राज्यभर में प्रिंसिपलों के २६० पदों को भरने की अनुमति दी है।
क्या है वजह?
रत्नागिरी के मंडनगढ़ कॉलेज के शिक्षक एकनाथ सुतार ने सीनेट में प्रिंसिपलों की खाली पदों का मुद्दा उठाया था। उन्होंने बताया कि रिक्त पदों के कई कारण हैं। ‘कभी-कभी सरकार नियुक्ति के प्रस्तावों को लंबे समय तक लटकाए रखती है। अन्य मामलों में, मैनेजमेंट अपने स्वार्थों के कारण पदों को नहीं भरता है। कुछ मामलों में कॉलेजों को पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिलते हैं।’ नियमित प्रिंसिपल न होने से संस्थान पर बुरा असर पड़ता है। प्रिंसिपल की अतिरिक्त जिम्मेदारी संभालने वाले व्यक्ति को नियमित प्रिंसिपल की तरह जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है।