मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : ट्रांजिस्टर वाला भूत और झूलन ददा

काहें बिसरा गांव : ट्रांजिस्टर वाला भूत और झूलन ददा

पंकज तिवारी

मंगरू करीब दो साल बाद मुंबई से घर लौटा था। पूरा गांव उसे देखने टूट पड़ा था। मंगरू की मां बड़ी सी दौरी में रेवड़ी और लाई-गट्टा लिए सभी को बांट रही थी। मुनिया कोंछ में लाई लिए जल्दी से घर भागी जा रही थी, ताकि छोटके भैया को भी जल्दी से भेज सके और इसी बहाने घर में लाई ज्यादा आ सके। बड़े-बुजुर्गों के लिए खटिया, तक्था बाहर निकालकर रख दिया गया था। लोग आ रहे थे और बैठकर मंगरू का इंतजार कर रहे थे तब तक टाठी में रखा रेवड़ी लोगों को खाने के लिए दिया जा रहा था। लोटा में पानी लिए झगड़ू तैनात था, ताकि कोई बिना पानी के लौट ना जाए, सत्कार सबका हो सके। मंगरू के दरवाजे पर मेला लगा हुआ था और मंगरू था कि थकाई से चूर घर में ही बैठा था, नहीं-नहीं तैयार हो रहा था, क्या पता आराम ही कर रहा था?
‘मंगरुआ हये रे.., बहरवां तऽ आउ…’, महाजन जोर से चिल्लाए।
‘अरे हे दद्दा, ओका रेरियावऽ जिन, ऊ गोस्साइ जाए, अत्तर, टीनो पाल लगावइ लगा बा अब, गोराइ के उजरका दही होइ गवा बा, मुंबई के पानी लगि गवा बा ओका।’ बहुत ही गंभीर मुद्रा बनाते हुए सनेही बड़े ही धीरे से बोला।
‘रस्तवा में डांटि दिहे रहा नोखइ के कवनउ बात पे, पता नाइ चिन्हबउ करे कि नाइ हमइ सबके।’ सनेही के हां में हां मिलाते हुए रमेस्सर भी बोल पड़े।
‘अइसन का बचई, मतलब लइका बिगड़ि गवा बा हो… जाइ दे रे… तब हमहूं न बोलाउब’, महाजन ददा दो तीन रेवड़ियां मुंह में डालते हुए धीरे से कह उठे।
कुछ देर के लिए सन्नाटा पसर गया। सभी निगाहें मंगरू के मोहारे पर ही टिकी हुई थीं। ओसारे के खपड़इले पर नीम के खूब सारे पत्ते झड़े हुए थे, गिलहरी पता नहीं क्या बीनकर खाए जा रही थी। नीम के पेड़ पर रहठा, संठा बांधकर रखा हुआ था जो लगभग सड़ ही गया था। घास-फूसों पर फफूंदी लगी हुई थी।
सन्नाटा टूटा, मंगरू सफेद सर्ट और पैंट पहने बाहर निकला। एकदम पतला शरीर, बिल्कुल करिया और सजा हुआ बार तथा मूंछ, करिया जूता, मुस्कराता हुआ चेहरा। बच्चे पांव छूने को टूट पड़े। सभी को दुलारते आशीष देते मंगरू आगे बढ़ा और अपने से बड़ों का पैर छूते हुए हाल-चाल लेने लगा।
‘हाय रे लाल, नजर ना लगे बचवा’, महाजन ददा सिहा-सिहा के बोले जा रहे थे।
कोई बार तो कोई मूंछ निहारे जा रहा था।
‘अउर ददा का हाल-चाल बा’, मंगरू बोला।
‘अरे तूं तऽ रचिकउ नाइ बदलऽ बेटवा’, बुढ़ऊ बोल उठे।
‘काहें बदलब ददा, आपन घरउ गांव केउ भूल जाए भला। पानी-ओनी पीयइ के मिला कि नाइ सबके।’
‘हां हां मिला’, एक साथ ही कई आवाज गूंज उठी।
‘झगड़ू ट्रांजेस्टर लियावऽ, ददा हरेन के कुछ देखावइ के बाऽ, बहुत नई चीज बाऽ।’
वहां उपस्थित सभी आंखें एक साथ बड़ी हो गर्इं और झगड़ू को निहारने लगीं। झगड़ू अंदर गया और बड़ा सा डब्बा जैसा कुछ लाकर एकदम बचाते हुए धीरे से रख दिया।
दादी, अइया, काकी, ददा, मावा, कका सब एकटक बस डब्बा ही घूरे जा रहे थे।
‘ई का हौ रे बेटवा?’ काकी दांत से साड़ी दबाते हुए भगइया से पूछने लगीं।
सोहन झटके में डब्बे को छू लिया तब तक तड़ाक पीछे से मगन पीट दिया, ‘खराब हो जाए तो।’ और डांट दिया सोहन को।
‘ई हौ ट्रांजिस्टर अउर एकर मजा बा ई…’ कहते हुए मंगरू टक्क से बटन दबा दिया। जोर-जोर से गाना बजने लगा। ढोल, हरमुनिया, भोंपो एक साथ शुरू हो गया, आवाज चारों तरफ गूंज उठी।
झूलन ददा जोर से भागे, ‘बप्पा रे बप्पा डब्बवा में भूत बा रे, एतना छोट कऽ डब्बा में एतना मनई… दइया रे दइया, ओलियान कइसे होइहीं राम…?’
मंगरू दौड़ा और ददा को पकड़कर समझाने का प्रयास करने लगा। आश्चर्यचकित होकर सभी बस मंगरू को सुने और घूरे जा रहे थे।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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