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काहें बिसरा गांव: आलूदम और निमोना की आस में भगेलू

पंकज तिवारी

ठंड धीरे-धीरे बीत ही रही थी कि हवा ने सभी को परेशान कर दिया था। रात गाइ-गोरू के साथ ही मनई भी ठंड से परेशान हो गए थे, पर सुबह तक घाम कड़ा लगने लगा था। लोग कड़ुवा तेल लगाए इनारा पर बैठ समूह में घाम सेंकने में लगे हुए थे और गांव-घरे के चर्चा में मशगूल भी थे कि दादी जोर से आवाज लगाई।
‘आवऽ भैया सब जने जल्दी आवऽ, सलोनी तैयार बाऽ…।’
सुनते ही भगेलू के मुंह में पानी आ गया। भगेलू खाने-पीने के मामले में तेज था।
‘हे ददा इंही मंगवाइ दऽ न’, भगेलू घिघियाते हुए झूलन ददा से कहने लगा।
कतवारू और लदेरन को भेजकर ददा सारा माल यहीं उठा लाने को बोल दिए। दोनों दौड़ते हुए गए और सब कुछ लिए दौड़ते हुए वापिस आ गए थे।
टाठी और कलछुल लिए दादी भी आ गई थी। महफिल इनारा पर ही जम गई थी। आलूदम टाठियों में परोसा गया। दही और गन्ने का रस मिलाकर सिखरन बना था। नीम का सींक लिए सब आलूदम पर टूट पड़े और साथ ही सिखरन भी पीए जा रहे थे। देखते ही देखते और भी लोग आ गये थे। भूंवर ऊंख के पेराई में लगा हुआ था उससे भी नहीं रहा गया, ढकेलू को बैल के पीछे लगाकर भागता हुआ आ धमका। आंख और नाक की नदी बही जा रही थी, पर खाने की रफ्तार कम नहीं हो रही थी। कमोबेश यही हाल सभी का था। गिलास कम पड़ने पर लोग अंजुरी लगाकर ही पीने लगे थे। दही का थक्का देखकर ही मन मगन हो जा रहा था। उधर भैंस बड़े जोर से चिल्लाने लगी थी। ददा दौड़ते हुए झौवा में कोयर लिए भागे। हउदा में कोयर, दाना-पानी मकोलने के बाद उसका माथ थपथपा कर फिर से महफिल में आ गए थे।

गिलहरी नीम से उतरकर अभी-अभी तिनका मुंह में दबाए ऊपर भाग गई थी। कौवा दूर से ही बैठा सब कुछ देख रहा था। शेरू पूंछ हिलाता कौरा के ताड़ में सभी के सामने इधर-उधर ही भटक रहा था कि ददा दूर से ही कौवे की तरफ आलू का एक टुकड़ा फेंक दिए। चोंच में आलू दबाए कौवा फुर्र से उड़ गया और मुंडेर पर जा बैठा।

इधर ददा पुचकारते हुए शेरू को बुलाए और उसे भी खोरा में भरपेट खाने को आलूदम दे दिए। अब तक सभी खा-पीकर अपना पेट सोहराते हुए ददा और दादी को खूब बखाने जा रहे थे। दादी सभी को खिलाकर खूब खुश थी‌। उसे दूसरों को खिलाने में बड़ा मजा आता था, पर बड़ी बात तो ये थी कि गांव में दूसरा कहां कोई होता था। कोई कका तो कोई ताऊ पूरा गांव अपना ही तो था। ददा को ये दान-पुन्न अच्छा नहीं लगता था। आलू और गन्ने का भाव जोड़ने लगते थे, पर पता नहीं क्यों आज वो भी मगन थे। हवा की झुरझुरी तन को सिहराए जा रही थी, पर इस आनंद के आगे सब निराधार थी। सबके सब मगन हो गपशप में मशगूल थे। जामुन, नीम, कनेर, केला सभी में हरियरी झलकने लगी थी जैसे इस दावत में सभी शामिल थीं। पक्षियों का कलरव अगल-बगल फूलों के सुगंध सा महकने लगा था। धूप-छांव का खेल भी सुहावन मनभावन लग रहा था‌‌‌। धीरे-धीरे लोग अपने-अपने काम को जाने लगे थे। भूंवर खोरा भर सलोनी लिए बैल और चरखी के तरफ चल दिए और ढकेलू को पकड़ाते हुए अपने काम पर लग गए। खेतों में सरसों की पियरई मन को हरियर करने हेतु काफी थी। अरहर, मटर, चना धरती का गहना बने इठला रही थीं कि खेत से मटर की छीमियां तोड़ने हेतु घर के बच्चे और बच्चियां एक साथ उधर ही चल दिए।
‘आज निमोना बनाउबऽ, जेका खाइके होये आइ जायऽ’, दादी जोर से बोल उठीं।
भगेलू फिर ठिठक गया। ‘काकी हमरउ शंती बनइ दिहे रेऽ।’
ददा अंदर ही अंदर फिर जल उठे थे, मटर और आलू का खर्च भी जोड़ने लगे थे।
(लेखक ‘बखार कला’ पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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