डॉ. दीनदयाल मुरारका
यह बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानंद शिकागो के व्याख्यान के बाद अमेरिका में प्रसिद्ध हो गए। वह अमेरिका में घूम-घूम कर वेदांत दर्शन का प्रवचन दिया करते थे। इस सिलसिले में उन्हें अमेरिका के उन अंदरूनी इलाकों में भी जाना पड़ा जहां पर धर्मांध और संकीर्ण विचारधारा के लोग रहते थे।
एक बार स्वामी जी ऐसे ही एक कस्बे में व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यान के लिए खुले मैदान में लकड़ी के बक्सों का एक मंच तैयार किया गया। स्वामी जी ने उस पर खड़े होकर वेदांत, योग और ध्यान पर व्याख्यान शुरू किया। बाहर से गुजरने वाले लोग भी खड़े होकर उनकी बात सुनने लगे, जिसमें कुछ चरवाहे भी थे।
पीछे खड़े चरवाहों में से कुछ लोगों ने थोड़ी देर में अपनी बंदूक निकाल ली और स्वामी जी की ओर गोली दागने लगे। कोई गोली उनके कान के पास से गुजरती, तो कोई उनके पांव के पास से। स्वामी जी जिन बक्सों पर खड़े थे उनमें से कुछ बक्से तो छलनी-छलनी हो गए। इसके बावजूद स्वामी जी का व्याख्यान पहले की तरह धाराप्रवाह चलता रहा। वे न तो थमे और न ही उनकी आवाज कांपी।
स्वामी जी पर कुछ असर न होता देख अब चरवाहे भी वहां ठहर गए। व्याख्यान के बाद वे स्वामी जी से बोले, आपके जैसा व्यक्ति हमने पहले कभी नहीं देखा। हमारी गोलीबारी के बीच आपका भाषण ऐसे चलता रहा जैसे कुछ हुआ ही न हो। अगर हमारा निशाना चूक जाता तो आपकी जान आफत में पड़ सकती थी।
स्वामी जी ने उन्हें बताया कि जब वह व्याख्यान दे रहे थे तब उन्हें बाहरी वातावरण का ज्ञान ही नहीं था। उनका सारा ध्यान वेदांत और आध्यात्मिक गहराइयों में डूबा हुआ था। चरवाहों को अपनी गलती का एहसास हो गया। वे उनके सामने नतमस्तक हो गए और अपने कृत्यों के लिए क्षमा याचना करने लगे तथा भविष्य में ऐसी गलती दोबारा न करने का उन्होंने प्रण लिया।