मुख्यपृष्ठस्तंभझांकी : राष्ट्रगान बड़ा या राज्यपाल

झांकी : राष्ट्रगान बड़ा या राज्यपाल

अजय भट्टाचार्य

लगातार दूसरे वर्ष तमिलनाडु विधानसभा में राज्यपाल आरएन रवि ने कुछ कारणों का हवाला देते हुए परिचयात्मक भागों को छोड़कर राज्य सरकार द्वारा तैयार किए गए अपने पारंपरिक अभिभाषण को पढ़ने से इनकार कर दिया। बाद में विधानसभा अध्यक्ष एम अप्पावु ने राज्यपाल की उपस्थिति में पारंपरिक संबोधन का तमिल संस्करण पढ़ा और उसे पूरा करते हुए अध्यक्ष ने राज्यपाल की टिप्पणियों का तीखा जवाब दिया और कहा कि राज्यपाल द्वारा की गई व्यक्तिगत टिप्पणी रिकॉर्ड में नहीं जाएगी। अध्यक्ष द्वारा अपनी तीखी टिप्पणी पूरी करने के तुरंत बाद राज्यपाल राष्ट्रगान के लिए रुके बिना सदन से चले गए। पारंपरिक संबोधन में सच्चाई के विपरीत कोई टिप्पणी नहीं होती और ऐसी कोई टिप्पणी नहीं होती, जो किसी सरकार पर आरोप लगाती हो। पारंपरिक संबोधन को राज्यपाल ने पहले ही मंजूरी दे दी थी। राज्यपाल चाहते थे कि सत्र की शुरुआत में राष्ट्रगान बजाया जाना चाहिए, जबकि सदन के नियमों के अनुसार सत्र का आरंभ थमिज थाई गीत से और समापन राष्ट्रगान के साथ होता है। पूरे तमिलनाडु में सरकारी समारोहों में इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है। राष्ट्रगान छोड़कर राज्यपाल ने किस राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया है?
‘आप’ की मजबूरी
गुजरात में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) का गठबंधन है। राजनीतिक नहीं, बल्कि प्रशासनिक। राज्य में चार विधायक वाली ‘आप’ को कांग्रेस कार्यालय के साथ विधानसभा भवन की पहली मंजिल पर एक कार्यालय दिया गया है। लेकिन ‘आप’ के दफ्तर में कोई स्टाफ नहीं है, इसलिए विधायक कंप्यूटर पर पत्र लिखने और अपने मेहमानों के लिए चाय लाने जैसे रोजमर्रा के काम के लिए कांग्रेस के कर्मचारियों की मदद लेते हैं। ‘आप’ नेताओं ने अपने कार्यालय के लिए कर्मचारियों की मांग की है लेकिन उनकी याचिका अनसुनी कर दी गई है। एक ‘आप’ विधायक ने दुख जताते हुए कहा कि क्या करें कांग्रेस का साथ लेना पड़ रहा है।
परंपरा की विरासत
छोटे चौधरी ने राजग का झंडा-डंडा पकड़कर पारिवारिक परंपरा को कायम रखा है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की राजनीति में पितामह ने १९६७ में जिस परंपरा की नींव रखी, उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए १९७९ में जनता पार्टी से जनता पार्टी सेक्युलर बनाकर मोरारजी की छुट्टी कर प्रधानमंत्री बने। बड़े चौधरी ने भी अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए भाजपा, समाजवादी पार्टी (एसपी) और कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है। सात बार सांसद बने चौधरी अजीत सिंह ने अपने पिता और पूर्व प्रधान मंत्री चौधरी चरण सिंह की किसान नेता की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए १९९७ में रालोद का गठन किया। इससे पहले अजीत ने केंद्र सरकार में विभिन्न सरकारों में भूमिका निभाई। दिसंबर १९८९ में जनता दल के साथ वी पी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में उद्योगमंत्री बने। १९९१ में उन्हें जनता दल के सांसद के रूप में फिर से चुना गया। उस वर्ष प्रधान मंत्री पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन सत्ता में आया। बड़े चौधरी ने कांग्रेस से दोस्ती की और फरवरी १९९५ में उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री बने। एक साल बाद उन्होंने १९९६ का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ा और जीत हासिल की। इसके बाद उन्होंने किसानों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए भारतीय किसान कामगार पार्टी (बीकेकेपी) बनाने के लिए कांग्रेस छोड़ दी। यह अंतत: १९९७ में रालोद बन गया। जुलाई २००१ में वह अटल बिहारी वाजपेयी के नीत राजग सरकार में शामिल हुए और केंद्रीय कृषि मंत्री बने। पार्टी ने २००२ के उप्र विधानसभा चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन किया और ३८ सीटों पर चुनाव लड़कर १४ सीटें जीतीं। यह राज्य चुनावों में उसका अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन है, लेकिन २००४ के लोकसभा चुनाव में रालोद ने ओबीसी वोटों को मजबूत करने के लिए सपा के साथ साझेदारी कर दस सीटों पर चुनाव लड़ा व तीन पर जीत हासिल की। २०११ में रालोद कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-२ सरकार में शामिल हो गई और अजीत केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री बने। अगले वर्ष कांग्रेस के साथ गठबंधन में उप्र विधानसभा चुनावों में ४६ सीटों पर चुनाव लड़ी, लेकिन केवल नौ सीटें ही जीत पाई। २०१४ के संसदीय चुनावों में कांग्रेस के साथ गठबंधन में आठ सीटों पर लड़ी, लेकिन सभी पर हार गई। २०१७ का विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ा और केवल एक सीट जीती। २०१९ में उसने सपा और बसपा के साथ साझेदारी की, लेकिन अपने हिस्से की तीनों सीटें हार गई। २०२२ के राज्य सपा के साथ चुनाव लड़कर ३३ सीटों में से नौ सीटें जीतीं। अब छोटे चौधरी भाजपा की गोद में हैं।

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