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शबरी और बेसब्री!… राम वनगमन की सीख क्या?

अनिल तिवारी मुंबई

देश में जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव निकट आ रहे हैं, राम राज्योत्सव के आभासी नगाड़े भी तेज होते जा रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि श्री राम का वनवास खत्म हो चुका है। देश में रामराज्य आ चुका है। परंतु दुर्भाग्य, यथार्थ तो छुपाया नहीं जा सकता न! और यथार्थ बताता है कि अब भी समय के समग्र ‘कांटे’ श्री राम के वनगमन पर ही अटके पड़े हैं, उनके पैरों में समूल चुभे पड़े हैं। श्री राम के उस वनगमन पर, जिसके अपार आदर्श हैं, अनंत अभिप्राय हैं। इनकी जितनी भी व्याख्या की जाए, वो शायद कम ही होगी। वस्तुत: ‘वनवास’ के बिना श्री राम के आदर्शों की महत्ता ही नहीं समझी जा सकती। यह अकेला संघर्ष ही राम की मर्यादाओं के महत्व को दर्शाता है और दर्शाता यह भी है कि जब श्री राम की महिमा इतनी भव्य है तो उसे लेकर राज्य सत्ता की भावनाएं वैâसे ओछी हो सकती हैं और वैâसे तुच्छ हो सकती है सत्ताधीशों की राजनैतिक सोच?
खैर, पिछले दो खंडों से हम सुराज, रामराज्य अथवा श्रीराम के सुशासन पर विमर्श कर ही रहे हैं। इस बीच अनेक खंडों में वनवास का मुद्दा अर्थात राम वनगमन पर भी सतही चर्चा हुई है। परंतु इसके कुल निहितार्थ पर हम उपयुक्त गौर ही नहीं कर पाए। अत: इस खंड के प्रारंभ में ही हम श्री राम के वनवास का विस्तृत अर्थापन करेंगे। तदोपरांत, रामराज्य के मूल मुद्दे की पुन:विवेचना होगी ही। तदर्थ, इस खंड में हम श्री राम के राजधर्म और रामराज्य के तारतम्य की मीमांशा करेंगे और मीमांशा इस बात की भी करेंगे कि अयोध्या में भव्य-दिव्य राम मंदिर बन जाने के बावजूद क्या भगवान राम का वनगमन खत्म हो चुका है या अभी भी उनका वैचारिक वनवास शेष है, सनातन संघर्ष जारी है?
यह तो सर्वविदित है ही कि भगवान राम ने चौदह वर्षों का वनवास स्वीकारा था। पर उन्होंने ऐसा क्यों किया था, इसे लेकर कभी प्रदीर्घ विवेचना नहीं हुई। सहस्त्राब्दियों से यही प्रचलित मान्यता है और धर्म ग्रंथों में भी यही वर्णित है कि प्रभु राम ने अपने पिता महाराजा दशरथ द्वारा दुमाता वैâकई को दिए एक वचन की लाज रखने के लिए ही ऐसा किया था। अर्थात जब यह वचन माता वैâकई को प्राप्त हुआ होगा तो वस्तुत: श्रीराम उससे अनभिज्ञ ही रहे होंगे। अत: उसकी पूर्ति की कोई नैतिक प्रतिबद्धता तो उन पर थी नहीं! तब भी, चूंकि पिता ने वचन दिया था तो पुत्र ने उसका सहर्ष निर्वहन भी किया और उसे एक आदर्श स्थान भी दिलाया। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण हो या तुलसी रचित रामचरित मानस, दोनों ही इसी तथ्य की बहुधा पुष्टि भी करते हैं। तदपि, अनेक युगांतरों के बाद भी श्री राम के वनवास स्वीकारने के अन्य कारणों से संपूर्ण पर्दा हट नहीं सका है।
अर्थात् यदि गौर करें और ग्रंथ-कथाओं के सार में भी जाएं तो प्रतीत होता है कि श्रीराम ने वनवास मात्र अपने पिता के वचन के लिए ही नहीं स्वीकारा था। स्वीकारा होगा, वो एक कारण हो सकता है। वे पिता के वचन का मान रखना चाहते थे, जो उन्होंने रखा भी। वह एक कारण है परंतु इसके अन्य पहलू भी हैं। अर्थात श्री राम ने वनवास रावण और उस जैसे अन्य दैत्यों के नाश के लिए स्वीकारा होगा, परंतु पूर्ण सत्य यह भी नहीं है। सत्य यह भी नहीं है कि राम ने सनातन को सनातन आदर्शों का भान कराने अथवा मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाने के लिए इतना कठिन संकल्प लिया हो। यहां तो ऐसा भी कदापि नहीं था। तब पूर्ण सत्य है तो क्या? तो इसका पूर्ण सत्य यही है कि श्री राम ने वनवास इसलिए स्वीकारा था, या होगा, ताकि वे एक दरिद्र-अछूत, एक भीलनी-वनवासिनी वृद्धा शबरी की पथरा चुकी आंखों में उम्मीद की रोशनी भर सकें। उसका आत्मिक-आध्यात्मिक कल्याण कर सकें। एक हजार वर्षों से प्रभु के क्षण मात्र दर्शन का इंतजार कर रही बूढ़ी शबरी को मिलनेवाली सदियों की आत्मानुभूति के लिए उन्होंने कठिन वनवास स्वीकारा था। उस बेसब्र, बेसहारा, वृद्धा श्रमणा के मातृ प्रेम के लिए स्वीकारा था। उस एक अकेली भक्तिनी के दुख-दर्द को साझा करने के लिए श्री राम ने १४ वर्षों का वनवास सहर्ष स्वीकारा था। महलों में रहने वाले एक सुकुमार-राजकुमार ने लंबा-कठिन कांटों का पथ इसीलिए स्वीकारा था। भक्त के प्रति भगवान के समर्पण के लिए स्वीकारा था और स्वीकारा था यह आदर्श स्थापित करने के लिए कि पुत्र का माता-पिता के प्रति, शिष्य का गुरुजनों के प्रति और विशेष रूप से राजा का प्रजा के प्रति ऐसा ही समर्पण होना चाहिए। व्युत्पन्न रहित। किसी भी लाभ, किसी भी अनुबंध से रहित। जिस तरह श्री राम को शबरी के मीठे बेरों से कोई सरोकार नहीं था, न ही उनके जूठे होने पर आपत्ति, उसी तरह निस्वार्थ। वे तो केवल उसके मातृ भाव का रसास्वादन कर रहे थे। वहां कृष्ण को भी विदुरानी के दिए केले के छिलकों का कोई बोध नहीं था। वे भी उनके भक्तिभाव में आनंदित थे, इतने कि उन्हें उन छिलकों में भी छप्पन भोग से अधिक आत्मसंतुष्टि मिल रही थी। राजा का जीवन इसी व्युत्पन्न रहित भाव का भूखा होना चाहिए। जिसकी संज्ञा और विशेषण दोनों से जनहित के अलग-अलग भाव निर्मित होते हों।
अर्थात प्रभु श्री राम की व्युत्पत्ति ही सब कुछ त्यागने से हुई है। भक्त शबरी की पुकार से हुई है इसलिए वे सब कुछ भुला सकते हैं, पर वे अपनों की सुध नहीं बिसार सकते। तो भला फिर एक राजा अपनी प्रजा को कैसे बिसार सकता है? राजा का तो धर्म भी यही है और राजधर्म भी यही। प्रत्येक नागरिक के प्रति कर्तव्य का धर्म और प्रत्येक शबरी की सेवा का धर्म। बात जब ‘राज’ की आती है तो उससे ‘धर्म’ का नाता स्वत: ही जुड़ जाता है। राजधर्म में धर्म का पवित्र भाव ही राजा की प्रतिष्ठा है। इससे विपरीत आचरण ईश्वर को भी अमान्य है। जब तक राजा को रामराज्य के भीतर समाहित सूक्ष्म तत्वों का भान नहीं होता, उसका शासन निरर्थक है। रामायण का सार भी यही बताता है कि श्री राम का राजधर्म उनका राजपाठ या सिंहासन नहीं था, वरन वन-प्रवास में ही उनका राजधर्म निहित था। कालांतर में उनका यही राजधर्म रामराज्य का मूलमंत्र बना। वस्तुत: जब वे वनवास के उपरांत राजगद्दी पर भी बैठे तो वनवासी होकर ही बैठे। सभी कुछ त्यागकर। उन्होंने धर्म मार्ग से सत्ता का निर्वहन किया। त्रेता से आज तक, उसी निस्वार्थ निर्वहन को रामराज्य की संज्ञा के रूप में परिभाषित किया जाता है और परिभाषा यही कि ऐसा राज, जहां सारे भय-शोक दूर हो जाएं। दैहिक, दैविक और भौतिक पापों से मनुष्य को मुक्ति मिल जाए। न किसी की अल्पमृत्यु हो, न कोई किसी पीड़ा से ग्रसित हो। सभी स्वस्थ, संपन्न, साक्षर और समर्पित हों। त्यागी-परोपकारी हों। अंतर्मन से प्रभु राम की स्तुति करें। निस्वार्थ भाव से नवधा भक्ति करें, जैसी रामभक्त शबरी ने की थी।
रामचरित मानस में वर्णित है कि जब शबरी स्वयं को नीच, अधम और जड़ बुद्धि कहते हुए श्रीराम की स्तुति कर रही थी, तब उसके अशांत मन को शांत करने हेतु प्रभु श्रीराम ने उसे नवधा भक्ति का मंत्र दिया था, उस प्रसंग का वर्णन कुछ इस प्रकार है,
पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी।।
केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी।।
अर्थात शबरी हाथ जोड़कर खड़ी थी और प्रभु को देखकर उसका प्रेम अत्यंत उमड़ पड़ा था। उसने कहा, मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूं? मैं नीच-अधम और अत्यंत मूढ़-मंदबुद्धि हूं। तब श्री राम ने कहा कि,
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
अर्थात मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूं और तुझसे अपनी नवधा भक्ति कहता हूं, उसे धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम। इस तरह श्री राम ने शबरी को एक-एक करके नवधा भक्ति का संपूर्ण ज्ञान दिया और प्रारंभ में ही बता दिया कि इसमें राम नाम का गुणगान तो हो पर साथ ही संतों का तिरस्कार भी न हो इत्यादि। अभिप्रेत मात्र यही कि श्री राम ने त्रेता में ही स्वयं बता दिया था कि वे जाति-पांति नहीं देखते, धर्म-पंथ भी नहीं देखते, निर्धन-धनवान तो बिलकुल नहीं देखते, गुण-सदगुण ही नहीं देखते, अपितु वे समर्पण का संपूर्ण भाव देखते हैं। वे वन में रहें या राजमहल में, उनका उत्तरदायित्व हमेशा धर्म मार्ग से राजधर्म का पालन ही होता है। अत: जो राजा सुख-सुविधाओं से वंचित न हो सके, राजधर्म का पालन न कर सके, उसे उसकी सुध दिलाने के बाद भी वो अहंकारवश जाग न सके, वो किसी हाल में रामराज्य का संवाहक नहीं माना जा सकता। जिसके लिए प्रजा की आशाओं-आकांक्षाओं का कोई मोल ही न हो, वो रामराज्य की बनावटी स्तुति तो कर सकता है, पर उससे प्रजा को कुछ अधिक प्राप्त नहीं हो सकता।
प्रसंगोल्लेख इसलिए कि जब जन्म भूमि मंदिर में प्रभु श्री राम की प्राण प्रतिष्ठा सनातन नीति-नियमों के आधार पर कितनी उचित है और कितनी अनुचित, इस पर तर्क-वितर्क चल रहे थे। धर्माचार्यों समेत स्वत: चारों शंकराचार्य तक प्रश्न उपस्थित कर रहे थे, खुलकर अपने नीति संमत मत व्यक्त कर रहे थे। तब भी राज्य सत्ता ने उन पर विचार करना उचित नहीं समझा। संतों के बहिष्कार के बाद भी सत्ता में चेतना का संचार नहीं हुआ और अंतत: तमाम रीति-परंपराओं को तोड़कर केवल राजनीतिक लाभ के लिए प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम संपन्न करा दिया गया, तो क्या इसे राम की नवधा भक्ति का अपमान नहीं कहा जाएगा? यह तो उनकी भक्ति के पहले ही नियम का भंग है। फिर यह भंग भगवान को कैसे स्वीकार होगा? उन प्रभु राम को जिनके नाम की राजनीति हो रही है। क्या यह एक तार्किक प्रश्न नहीं है? अर्थात जब-जब विवेचना श्री राम की प्राण प्रतिष्ठा की होगी या उनके रामराज्य की होगी, तो वहां धार्मिक आस्था से ज्यादा राजनैतिक आवश्यकता पर बल देना, सभी नीति-नियम बिसार देना, वैâसे स्वीकार होगा? वहां संतों की वाणी दबा देना, न ही राजधर्म का पालन कहलाएगी, न ही रामराज्य का प्रारंभ।
संतों की अवहेलना, सत्संग का अभाव मात्र प्रणहीन राजधर्म का ढिंढोरा है, आडंबर है, सत्ता का स्वार्थ है, उससे अधिक कुछ नहीं। उस पर तुलना श्री राम से! उस राम से, जिन्होंने एक साधारण मानव के प्रश्न पर Dापने प्राणों से भी प्रिय पत्नी को त्याग दिया था। पिता के दिए वचन की पूर्ति के लिए सत्ता को क्षण मात्र में तज दिया था। उस राम के राजधर्म से और उस राजा के रामराज्य से किसी की दूर-दूर तक तुलना नहीं हो सकती है! महागणांश भी नहीं। आप चाहे कुछ भी दावे क्यों न कर लें, जनता की नजर में वो बेमाने हैं। केवल इतना कह देने मात्र से कि प्राण प्रतिष्ठा के साथ ही रामराज्य आ गया, रामराज्य नहीं आता। इसीलिए आज की राज्य सत्ता को रामराज्य में लोकतंत्र का परिमार्जित रूप नहीं कहा जा सकता। किसे यहां हर परिस्थिति में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वास्तविक, व्यावहारिक, दार्शनिक और साहित्यिक आदर्श दिखता है? आज गरीब-निर्धन, असहाय शबरी की किसी को कोई भी सुध है? उसके लिए कहीं कोई त्याग है, तप है, पीड़ा है? यहां रोज असंख्य शबरी भूखे पेट सो रही हैं, नंगे बदन रह रही हैं। नोंचीं-खायीं जा रही हैं, अभावग्रस्त परिवेश में, अत्याचारों को सह रही हैं। राजा के करों के बोझ तले दबी जा रही हैं। पथराई आंखों से राज कृपा की उम्मीद लगाए बैठी हैं। क्या राजा पहुंचा है उन तक? किसी शबरी तक? या उसका कथित सुराज ही सहायक बना है उनका? नहीं न? तब व्यर्थ के दावे क्यों? कोरे राजनैतिक लाभ के लिए किसी एक ‘शबरी’ के पैर धो देने से समग्र प्रजा के कष्टों का निवारण नहीं हो जाता? कलियुग में दिखावे के लिए जूठे बेर खाने से ‘झूठे’ वादों पर पर्दा नहीं पड़ जाता। अपितु, प्रजा के भावामृत का पान करने से राज कल्याण होता है। आत्म संतुष्टि मिलती है। यह राजा को कभी भी बिसारना नहीं चाहिए। सर्व सुखाय का समर्पण भाव ही आज भी प्रजा अपने राजा में ढ़ूंढ़ती है और यही राजा की प्रजा के प्रति भक्ति भी होती है। अर्थात जिस राज्य सत्ता में जनता को श्री राम की मर्यादाओं, उनके संस्कारों और शिष्टाचारों का कोई स्थान ही न नजर आए; उनके जीवन मूल्यों, वैचारिक विरासत और सैद्धांतिक संपदा का महत्व ही न दिखे, तो उसे केवल श्री राम की निष्प्राण प्रतिष्ठा कहा जा सकता है।
जनता सुधी है, जानती है कि ‘दमन राज’ में श्री राम अपनी प्रतिष्ठा को नहीं स्वीकारते। वे वनवास में रहना पसंद करते हैं पर अराजकता में नहीं बसते। मर्यादाओं के अभाव में नहीं विराजते। फिर वे क्यों अपना वनवास त्यागकर अयोध्या के महल में फिर से विराजेंगे? जो महल उन्होंने अपने पिता के वचन और मर्यादाओं के लिए बिना एक क्षण का विचार किए, पल भर में त्याग दिया था और अपना प्रण पूरा करने के बाद ही उसकी ओर मुड़कर देखा था, क्या श्री राम अपनी ही उस विचारधारा से, संकल्प से, उस अस्मिता से, उन आदर्शों से मुंह फेर लेंगे? राम कदापि आदर्शविहीन आवाहन पर संगमरमर के महल में कदम नहीं रखेंगे। वे निश्चित ही वन की उन कंटीली राहों पर, अरण्य के किसी एकांत में अपनी घास-फूस की कुटिया में ही सुकून से रहेंगे। जब तक यजमान के विचार शुद्ध नहीं होंगे, भगवान की मूर्ति में उनके प्राण नहीं आएंगे और जब मूर्ति में प्राण ही नहीं आएंगे तो रामराज्य वैâसे आएगा? श्री राम के मानकों को तिलांजलि देकर रामराज्य नहीं आएगा। अर्थात जब आज भी राम के आदर्श, संस्कार और मर्यादाएं ‘वनवास’ काट ही रही हैं, राम तत्वों का अंतहीन अरण्यवास जारी ही है, तब राम राज्योत्सव का ढोल किसलिए पीटा जा रहा है? इसलिए आप रामराज्य से तुलना छोड़ ही दें। आप तो केवल राजधर्म, नैतिकता और लोक-लज्जा के पैमानों पर ही इसे जांच लें? जनता संतुष्ट हो जाएगी।
खंडसार यही कि श्रीराम का व्यक्तित्व जितना बड़ा है, जितना सुसंस्कारी है, उससे भी कहीं बड़ी और अथाह है उनकी करनी का आख्यान। उसे अंगीकार करना आज की राज्य सत्ता के लिए असंभव है। आज की राज्य सत्ता तो सिर्फ सिंहासन से आत्मसंतुष्ट है। उसी सिंहासन के लिए उसने सियासी ‘महाभारत’ मचा रखी है। गारंटियों की हवाई झड़ी लगा रखी है। कहीं सिंहासन छिन न जाए, इसके लिए ‘शकुनि’ सी चालें चली जा रही हैं। सत्ता सीना ठोकती तो है पर यह नहीं बता पाती कि जब पांडवों सा कर्म है, राम सा धर्म है तो फिर दुर्योधन सा डर क्यों है उसमें और क्यों है किसी की अस्मिता, किसी का अस्तित्व, किसी का आत्मसम्मान व किसी के समर्पण की लूट मचाने वाली उग्रता? जब सत्ता सुसंस्कृत और शुद्ध मन सनातनी है तो क्यों चुराई जा रही हैं धार्मिक मान्यताएं व परंपराएं? क्यों नहीं बदली जा रही कि जिन सिद्धांतों और जीवन मूल्यों के सहारे सनातन धर्म और कर्म, सनातन काल से चला आ रहा है उसे छिन्न-भिन्न करने की मानसिकता? भक्ति की परिभाषा बदलने की व्यग्रता? बेशक, आप श्री राम की राजनैतिक भक्ति में लीन रहें, अयोध्या धाम में भव्य-दिव्य मंदिर का निर्माण करें, दो चरणों में करें, तीन में करें या चार में, यह उतना महत्व नहीं रखता। जितना यह कि अयोध्या में भव्य मंदिर बना लिए जाने के बाद भी क्या आप भगवान श्री राम का वनवास खत्म कर पाए हैं, उन्हें यथार्थ में आत्मसात कर पाए हैं? यदि नहीं, तो अभी भी उनका वैचारिक वनवास जारी है? सैद्धांतिक संघर्ष शेष है?

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