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मध्यांतर : भाजपा में लोकसभा उम्मीदवारी के बाद कइयों की राजनीति पर लगा ग्रहण

प्रमोद भार्गव
शिवपुरी (मध्य प्रदेश)
भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए १६ राज्य व दो केंद्रशासित प्रदेशों के लिए १९५ प्रत्याशियों की पहली सूची जारी कर दी है। मध्य प्रदेश की २९ सीटों में से २४ पर नाम घोषित कर दिए हैं। पांच सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा नहीं हुई है। राज्यसभा सदस्य एवं केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी पारंपरिक सीट गुना-शिवपुरी से टिकट हासिल करके जता दिया है कि उनकी इच्छा को भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व स्वीकार रहा है। इसी कारण उन केपी यादव का टिकट काट दिया गया, जिन्होंने २०१९ में सिंधिया को इसी सीट पर पराजित किया था, लेकिन पांच साल बाद सिंधिया फिर इसी सीट से चुनाव लड़ने जा रहे हैं।
सिंधिया २०२० में कांग्रेस से भाजपा में २२ विधायकों के साथ आए थे। उनके इस दल-बदल से कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर गई थी। इस बदलाव के इनाम के तौर पर सिंधिया को पार्टी ने राज्यसभा सदस्य तो बनाया ही नागरिक उड्डयन एवं इस्पात मंत्री बनाकर उनकी ताकत की पुनर्बहाली कर दी थी। तभी से सिंधिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के विश्वासपात्र बने हुए हैं। जहां वे पार्टी और इन नेताओं का खूब गुणगान करते हैं, वहीं संघ के पदचिह्नों पर भी चल रहे हैं। कांग्रेस को कोसने के लिए वे उस एजेंडे पर खरे उतरे हैं, जिसे पार्टी और संघ अमल में लाना चाहते हैं। सिंधिया २०१९ में जरूर कांग्रेस का प्रत्याषी रहते हुए हार गए थे, लेकिन अब उनकी जीत सुनिश्चित मानी जा रही है। वैसे भी गुना-शिवपुरी में जितने भी बड़े विकास कार्य हुए हैं, वे सब उनके कांग्रेस सरकार में मंत्री रहने के दौरान ही हुए हैं। इनमें शिवपुरी में मेडिकल, इंजीनियरिंग एवं पॉलिटेक्निक कॉलेज, मडीखेड़ा जल-आवर्धन योजना और सीवर परियोजना के साथ अनेक रेलों को गुना-शिवपुरी से गुजारने की सौगातें दी हुई हैं। बीते पांच साल में कोई बड़ी योजना गुना-शिवपुरी एवं अशोकनगर जिलों को नहीं मिली। लिहाजा तीनों जिलों की जनता उन्हें इस संसदीय सीट से जिताकर अपनी भूल सुधार करना चाहती थी।
सिंधिया की उम्मीदवारी के बाद ग्वालियर-चंबल अंचल के कई उन खांटी नेताओं की राजनीति को स्थाई ग्रहण लग गया है, जिन्होंने माधवराव और ज्योतिरादित्य का विरोध करते हुए स्वयं को राजनीति में स्थापित करके भाजपा के झंडे गाड़े थे। इनमें अटलबिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा, ग्वालियर के वर्तमान सांसद विवेक शेजवलकर, पूर्व गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा और जयभान सिंह पवैया प्रमुख हैं। सिंधिया के टिकट की घोषणा के बाद उनकी बुआ यशोधरा राजे सिंधिया के अरमानों पर भी पानी फिर गया है। शिवपुरी से विधानसभा का टिकट नहीं मिलने के बाद उन्हें उम्मीद थी कि गुना से लोकसभा का टिकट मिल जाएगा। उनके अनुयायी उनको टिकट देने की मुहिम भी सोशल मीडिया पर चला रहे थे, चूंकि यशोधरा ग्वालियर सीट से भी सांसद रह चुकी हैं इसलिए उनकी दावेदारी इस सीट से भी थी, परंतु यहां से विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर ने अपने चहेते भारत सिंह कुशवाहा को टिकट दिलाकर उनका रास्ता हमेशा के लिए रोक दिया। वैसे भी अब वे उम्रदराज हो रही हैं। साथ ही उनके विकास कार्य भी उल्लेखनीय नहीं रहे। सिंधिया से भी उनकी पटरी कभी नहीं बैठी। उनका शिवपुरी विधानसभा से टिकट काटा भी इसलिए गया था, क्योंकि पार्टी के सभी भीतरी और बाहरी सर्वेक्षणों में उनके प्रति जनता की नाराजगी सामने आई थी। अब भतीजे सिंधिया के भाजपा में प्रभुत्व के चलते उनकी राजनीति पर भी स्थाई विराम लगता दिखाई दे रहा है। नरोत्तम मिश्रा भी आगे कोई करिश्मा दिखा पाएंगे, ऐसा फिलहाल लग नहीं रहा है। हालांकि, उनका नाम गुना और भोपाल सीट से पैनल में था, लेकिन दोनों ही जगह उम्मीदवार तय हो गए हैं।
हालांकि, सिंधिया केवल खुद का ही टिकट ले पाने में सफल हुए हैं। उनके कहने से उनके किसी अन्य समर्थक को टिकट नहीं मिला है, जबकि शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर अपने अनुयायियों को टिकट दिलाने में सफल रहे हैं, जबकि शिवराज को हाशिए पर पहुंचाने की स्थितियों का आकलन राजनीति के विशेषज्ञ और जनता कर रही थी। इसका मुख्य कारण प्रदेश में भाजपा को बड़ी जीत दिलाने के बावजूद उनकी केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व में पूछ-परख का घटना माना जा रहा था, परंतु अब ३२ साल बाद वे विदिशा लोकसभा सीट से खुद तो चुनाव लड़ेगे ही, अपने दस करीबियों को भी टिकट दिलाने में कामयाब हो गए हैं। भोपाल से उनके करीबी आलोक शर्मा को प्रज्ञा सिंह ठाकुर का टिकट काटकर प्रत्याशीr बनाया गया है। होशंगाबाद से दर्शन सिंह चौधरी और राजगढ़ से रोडमल नागर को टिकट दिलाने में शिवराज की ही अहम् भूमिका रही है। इनके अलावा सागर से लता वानखेड़े, रीवा से जनार्दन मिश्र, शडहोल से हिमाद्री सिंह, रतलाम से अनीता नागर, खरगोन से गजेंद्र पटेल और खंडवा से ज्ञानेश्वर पाटील शिवराज के ही उम्मीदवार हैं। बड़ा झटका नौ बार विधायक रहे गोपाल भार्गव को भी लगा है। मंत्रिमंडल में कोई जगह नहीं मिलने के बाद वे इस कोशिश में थे कि उनके पुत्र अभिषेक भार्गव को दमोह या सागर से टिकट मिल जाए, लेकिन नहीं मिला। अब उनकी राजनीति पर भी ग्रहण लगने की शुरुआत हो गई है।
नरेंद्र सिंह तोमर की इच्छा भी मुरैना सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने की थी, लेकिन पिछड़ गए। हालांकि, वे अपने नुमाइंदे शिवमंगल सिंह तोमर और ग्वालियर से डॉ. भारत सिंह कुशवाहा को टिकट दिलाने में सफल हो गए हैं। साफ है कि अपनी शालीन राजनीति की गोटियां चलते हुए उन्होंने ग्वालियर-अंचल में सिंधिया को झटका दे दिया है, क्योंकि वे खुद के अलावा किसी और को टिकट नहीं दिला पाए हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा जहां खजुराहो से फिर चुनाव लड़ेगे, वहीं उन्होंने नए चेहरे के रूप में जबलपुर से आशीष दुबे को भी टिकट दिला दिया है। मसलन उनकी तूती आगे भी बोलती रहेगी। डॉ. मोहन यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री जरूर हैं, लेकिन वे कोई अपनी पसंद का नया चेहरा प्रत्याशी बनाने में सफल नहीं हुए हैं। भाजपा ने टिकट देने में जातीय गणित बिठाने की भी कवायद की है। इसलिए आरक्षित सीटें छोड़ दें तो चार ब्राह्मण, दो क्षत्रिय और एक वैश्य को टिकट देकर श्रवण समाज को साधने की कोशिश की है। पार्टी ने अभी छिंदवाड़ा से कोई प्रत्याशी तय नहीं किया है। कमलनाथ और उनके पुत्र नकुलनाथ के कांग्रेस से जाने का जो हल्ला मचा था, वह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा लग रहा है। इससे प्रदेश में कांग्रेस का न केवल मनोबल कमजोर हुआ है, बल्कि राहुल गांधी की भारत जोड़ों न्याय यात्रा को भी झटका लगा है। अतएव शिवराज सिंह के छिंदवाड़ा से चुनाव लड़ने की जो अटकलें लगाई जा रही थीं, उन पर विराम उन्हें विदिशा से टिकट देने के बाद लग गया है। लिहाजा, भाजपा अब छिंदवाड़ा से कमजोर उम्मीदवार उतार सकती है? एक अटकल यह भी हैं कि नकुलनाथ चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद भाजपा में जाकर, भाजपा के उम्मीदवार बन जाएं?
(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)

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