मुख्यपृष्ठस्तंभसंसद में घूस की छूट से बच नहीं पाएंगे जनप्रतिनिधि

संसद में घूस की छूट से बच नहीं पाएंगे जनप्रतिनिधि

प्रमोद भार्गव
शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

देश की संसदीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ ने ऐतिहासिक पैâसला दिया है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इसी न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ के २६ साल पुराने निर्णय को पलटते हुए कहा है कि ‘रिश्वत लेकर सदन में वोट देनेवाले सांसद और विधायक अब संसदीय विषेशाधिकार की ओट लेकर बच नहीं पाएंगे। इन पर अब घूसखोरी का मुकदमा चलेगा।’ दरअसल, १९९८ में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अपनी अल्पमत सरकार को बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को घूस दी थी। नतीजतन, सरकार को सदन में बहुमत हासिल हो गया था। इस मामले में घूसखोर सांसद मुकदमे से इसलिए बच गए थे क्योंकि उन्हें विशेषाधिकार का सुरक्षा कवच मिला हुआ था। न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने इस सुरक्षा कवच का हवाला देते हुए ‘नोट फॉर वोट’ के संदर्भ में संसद को ही ऐसे सांसदों पर कार्यवाही करने का अधिकारी माना था। अब इसी पैâसले को आमूलचूल बदल दिया गया है। सांसद और विधायक यदि रिश्वत लेकर मतदान करते हैं या अनर्गल भाषण देते हैं, तो उन पर मुकदमा चलेगा। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार ने जहां जनप्रतिनिधियों के आचरण को अनैतिक बनाने का काम किया है, वहीं संसदीय लोकतंत्र की नींव में मट्ठा घोलने का काम भी किया है। अतएव यह फैसला स्वागत योग्य है।
सांसदों के असंसदीय आचरण का ताजा मामला तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सांसद महुआ मोइत्रा को पैसे के बदले प्रश्न पूछने का आया था। इस अनैतिक और अशोभनीय आचरण के लिए उन्हें सत्रहवीं लोकसभा की सदस्यता से निष्कासित कर दिया गया था। हाल ही में संपन्न हुए राज्यसभा के चुनावों में उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में विधायकों ने क्रॉस वोटिंग करके संविधान को साक्षी मानकर ली शपथ की गरिमा को पलीता लगाने का काम किया था। माननीय प्रतिनिधि संसद और संविधान की संप्रभुता से वैâसे खिलवाड़ कर रहे हैं, इनके कारनामे निरंतर देखने में आते रहे हैं। नोट के बदले वोट देने से लेकर संसद में पैसे लेकर सवाल पूछने के स्टिंग ऑपरेशन भी हुए हैं। १९९१ के आम चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आई थी। इसके साथ कई क्षेत्रीय दलों के समर्थन से कांग्रेस ने पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में सरकार बना ली थी। जुलाई १९९३ में इस जोड़-तोड़ की सरकार के विरुद्ध मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सदन में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, लेकिन यह प्रस्ताव आखिर में १४ मतों के अंतर से खारिज हो गया था। इसके बाद १९९६ में सीबीआई को एक शिकायत मिली, जिसमें आरोप लगाया गया था कि राव की सरकार को जीवनदान देने के बदले में झारखंड मुक्ति मोर्चा के कुछ सांसदों और जनता दल के अजीत सिंह गुट को रिश्वत दी गई थी। इस मामले में झामुमो प्रमुख शिवू सोरेन और उनकी पार्टी के चार सांसदों पर नोट लेकर वोट देने का आरोप लगा था। इन सांसदों के बैंक खातों में मिली धनराशि से भी यह पुष्टि हो गई थी कि नोट के बदले वोट देने की कालावधि में ही यह राशि जमा हुई थी।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार की नैतिक शुचिता पर आंच २२ जुलाई, २००८ को तब आई थी, जब उसने लोकसभा में विश्वास मत हासिल किया था। यह स्थिति अमेरिका के साथ गैर-सैन्य परमाणु सहयोग समझौते के विरोध में वामपंथी दलों द्वारा मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी के कारण निर्मित हुई थी। वामदलों के अलग हो जाने के बावजूद सरकार का वजूद कायम रहा क्योंकि उसने बड़े पैमाने पर नोट के बदले सांसदों के वोट खरीदे थे। इस मामले में संजीव सक्सेना और सुहैल हिंदुस्तानी को हिरासत में लिया गया था। इनकी गिरफ्तारी के बाद आए बयानों से जाहिर हुआ था कि सरकार बचाने के लिए वोटों को खरीदने का इशारा शीर्ष नेतृत्व की ओर से हुआ था। क्योंकि सुहैल ने समाजवादी पार्टी के मौजूदा राज्यसभा के सांसद अमर सिंह के साथ सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल का भी नाम लिया था। वोट के बदले इस नोट कांड में अमर सिंह के खिलाफ चार्जशीट भी दाखिल हुई थी। यही नहीं इस मामले में अमर सिंह और सुधीर कुलकर्णी को प्रमुख षड्यंत्रकारी आरोपित किया गया था। इस मामले में इन लोगों ने संजीव सक्सेना और भाजपा कार्यकर्ता सुहैल हिंदुस्तानी के साथ २२ जुलाई, २००८ को लोकसभा में विश्वास मत के दौरान भाजपा सांसद अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर सिंह भगोरा को वोट के बदले घूस दी थी। जिसका लोकसभा में इन सांसदों ने नोटों की गड्डियां लहराकर पर्दाफाश किया था। संसदीय परंपरा और नैतिकता की दुहाई देनेवाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए यह षड्यंत्र अमर सिंह ने रचा था। मनमोहन सिंह पर कठपुतली प्रधानमंत्री जैसे आरोप भले ही लगते रहे हों, किंतु उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर उंगली कभी नहीं उठी, पर २२ जुलाई, २००८ को नेपथ्य में रहकर जिस तरह से उन्होंने राजनीति के अग्रिम मोर्चे पर विश्वास मत पर विजय हासिल की, उससे कांग्रेस की सत्ता में बने रहने की ऐसी विवशता सामने आई थी, जिसने संविधान में स्थापित पवित्रता, मर्यादा और गरिमा की सभी चूलें हिलाकर रख दी थीं।
(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)

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