मनमोहन सिंह
एजेल एक्रिन और एन्ना डाइनिंग टेबल पर बैैठे ब्रंच ले रहे थे। काफी दिनों के बाद एन्ना के चेहरे पर हल्की सी हंसी आई थी। आज एक्रिन भी खुश थी। कॉफी का घूंट लेते हुए एन्ना ने कहा, ‘अब अपनी कहानी बताओ एजेल’।
‘हां मुझे पता है, मैने प्रॉमिस किया था तुमसे… तो सुनो’।
‘साल २०१२ फरवरी, सीरिया का डेरा शहर। जॉर्डन बॉर्डर के पास का इलाका। यहां पर १४ -१५ साल के बच्चों का एक ग्रुप था।
स्कूल जाने वाले वे बच्चे उस वक्त रेडियो और टेलीविजन में खबरें सुनते थे। तानाशाहों के खिलाफ आम जनता के बगावत की। मिडिल ईस्ट देश में तानाशाह हुक्मरानों का राज था। अपने बुनियादी अधिकारों को लेकर और हुक्मरानों के जुल्मों सितम से परेशान होकर जनता इंकलाब का नारा लगा रही थी। सबकी एक ही चाह थी। तानाशाहों से आजादी यानी डेमोक्रेसी। सबसे पहले तानाशाह बेन अली से छुटकारा मिला ट्यूनीशिया को। मिस्र की जनता वहां के तानाशाह हुस्नी मुबारक के खिलाफ उठ खड़ी हुई। मुबारक ने जनता पर खुलेआम गोलियां चलवा दी लेकिन उसे भी देश छोड़कर भागना पड़ा। लीबिया को भी तानाशाह उमर गद्दाफी से छुटकारा मिल गया। यह एक किस्म की बगावत थी जिसे ‘अरब स्प्रिंग’ नाम दिया गया।
जब ये बच्चे इन खबरों से रू-ब-रू होते तो उनके भीतर भी हलचल मच जाती। उन्होंने एक चीज गौर करनी शुरू कर दी थी कि उनके देश के हालात भी अच्छे नहीं हैं। वहां भी तो एक तानाशाह है जिसने उनकी जिंदगी जहन्नुम सी बना रखी है। उनमें से एक बच्चा जो काफी मुखर था उसने सोचा क्यों ना वे लोग भी देश के हुक्मरान के खिलाफ बगावत शुरू कर दें?
लेकिन वे थे तो बच्चे ही। करते भी क्या? लेकिन अंग्रेजी में एक कहावत है न ‘व्हेयर देयर इज ए विल, देयर इज ए वे’ यानी जहां चाह वहां राह।
एक सुबह वहां की एक दीवार पर लिखा हुआ था ‘इट्स योर टर्न डॉक्टर’ ‘डॉक्टर अब तुम्हारी बारी है’
फिर क्या था! पूरा शहर कांप उठा! जैसे जलजला आ गया हो! यह एक तरीके से देश के तानाशाह को खुलेआम चुनौती थी!
डेरा का सिक्योरिटी चीफ था आतिफ अजीब। सीरिया के हुक्मरान डॉक्टर का करीबी। कहते हैं न चाय से ज्यादा गरम पतीला होता है! उसे लगा यह चुनौती हुक्मरान से ज्यादा उसको दी गई है। उसने इस तरह के इबारत लिखने वालों को खत्म करने की ठान ली थी। लेकिन पता वैâसे चले कि जिन इबारतों से बगावत की बू आ रही थी, वह किसके दिमाग की उपज थी।
अगर महकमे के चीफ ने आपको दुश्मन मान लिया तो फिर आपकी खैर नहीं। पुलिस ज्यादती पर उतर आई। उसने उनके भी बच्चों को वैâदी बना लिया जिनके नाम कभी न कभी उन दीवारों पर लिखे गए थे। उन नामों से उस वक्त उस बगावती इबारतों का कोई वास्ता नहीं रहा हो। उन बच्चों में मुआविया भी था। उन बच्चों का मुखिया। जेल अब उनके लिए जहन्नुम से बदतर हो गया था। उन्हें मारा-पीटा जा रहा था। उन्हें उल्टा करके टांग दिया गया। उनकी बेरहमी से पिटाई की गई। उनके नाखून उखड़ लिए गए। इस तरह तकरीबन ६ सप्ताह गुजर गए। जब उनके परिवार वाले उनके बारे में पूछताछ करने जाते, तो उन्हें डरा-धमका कर भगा दिया जाता। उनके परिवार वालों से कहा जाता, ‘तुम अपने बच्चों को भूल जाओ… बच्चे चाहिए तो और पैदा करो… और अगर बच्चे पैदा नहीं कर सकते तो अपनी औरतों को हमारे पास भेज दो।’
(क्रमश:)