मुख्यपृष्ठस्तंभकिस्सों का सबक : जीत एवं हार

किस्सों का सबक : जीत एवं हार

डॉ. दीनदयाल मुरारका

वाराणसी में एक संत रहते थे। वह संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। उन्होंने सारे धर्मग्रंथों का बड़ी गहराई से अध्ययन किया था। दूर-दूर से लोग उनके पास पढ़ने या अपनी शंकाओं का निराकरण करने के लिए आते थे। संत का हृदय प्रेम से परिपूर्ण रहता था। उनके हृदय में करुणा की धारा बहती रहती थी। जो भी आता वे उसका दिल खोलकर स्वागत करते और उसकी सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर रहते। उनके चेहरे पर हर समय मुस्कुराहट खेलती रहती थी।
एक दिन एक युवक संत से मिलने आया। वह संस्कृत का विद्वान था। उसके नाम के साथ संस्कृत की बहुत सी उपाधि जुड़ी हुई थी। उसके चेहरे से विद्वता का घमंड झलक रहा था। वह संत से शास्त्रार्थ करने को आया था। उसने संत को सूचना दी कि मैं आपसे शास्त्रार्थ करने के लिए उपस्थित हुआ हूं। शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। युवक तो नौजवान था। उसका ज्ञान संत के सामने परिपक्व नहीं था। उसने जी जान से अपनी बाजी जीतने का प्रयत्न किया, किंतु वह संत के आगे ठहर नहीं सका। संत ने उसको शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया।
वो युवक इसके लिए तैयार नहीं था। उसे अपने ज्ञान का इतना अभिमान था कि वो अपने को पहले से ही विजेता मान बैठा था। इस पराजय से उसे इतनी चोट लगी कि उसने आत्मदाह करने का निर्णय ले लिया। संत को जब यह पता चला तो वह आहत हो गए। संत सोचने लगे कि ऐसी जीत किस काम की? जो दूसरों को प्राण का बलिदान करने के लिए प्रेरित करे। उन्होंने सोचा, नहीं, यह तो मेरी जीत नहीं है। यह तो वास्तविक हार है। उन्होंने तत्काल युवक को बुलाया और बड़े प्यार से उसे समझाया कि मनुष्य को अपने प्राण का हनन करने का अधिकार नहीं है। वीर पुरुष कभी आत्मदाह नहीं करते। यह तो कायरों का काम है। तुम डरो मत, जाओ, आगे से तुम्हें अपनी हार से कोई शिकायत नहीं होगी। इसके बाद संत ने जो किया उसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी। उन्होंने अपने मुंह पर काष्ठ का एक टुकड़ा बांध लिया और भविष्य में सदा के लिए शास्त्रार्थ करने को तिलांजलि दे दी। आगे चलकर संत काष्ठ स्वामी के नाम से विख्यात हुए।

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