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साहित्य शलाका : मेरे साहित्य लेखन का लक्ष्य समाज और देश की भलाई- संजीव

डॉ. दयानंद तिवारी

कथाकार संजीव को उनके उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ के लिए साहित्य अकादमी द्वारा २०२३ के पुरस्कार हेतु १२ मार्च २०२४ को दिल्ली में आयोजित समारोह में पुरस्कृत किया गया। यह उपन्यास सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। यह उपन्यास पहली बार वर्ष २०२० में प्रकाशित हुआ था। ‘मुझे पहचानो’ की कथा भारत में प्रचलित सती प्रथा पर आधारित है। कथाकार संजीव ने बताया कि सती प्रथा को समाप्त करने वाले राजा राममोहन राय की भाभी पर सती प्रथा को लेकर हुए उत्पीड़न को केंद्र में रखकर यह उपन्यास लिखा गया है। यह उपन्यास स्त्रियों के शोषण की कथा कहता है। इसमें सती प्रथा, स्त्रियों के शोषण और उस समय के सामाजिक परिवेश के बारे में कई मुद्दों को शामिल किया गया है।
संजीव (६ जुलाई, १९४७ से अब तक) हिंदी साहित्य की जनवादी धारा के प्रमुख कथाकारों में से एक हैं। कहानी एवं उपन्यास दोनों विधाओं में समान रूप से रचनाशील। प्राय: समाज की मुख्यधारा से कटे विषयों, क्षेत्रों एवं वर्गों को लेकर गहन शोधपरक कथालेखक के रूप में मान्य।
संजीव हिंदी साहित्य में साठोत्तरी दौर के बाद जनवादी कथान्दोलन के प्राय: साथ-साथ विकसित पीढ़ी के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं। वे लंबे समय तक साहित्यिक प्रचार केंद्रों से दूर रहकर ही प्राय: एक साधक की तरह रचनारत रहे हैं। उनकी पहली प्रकाशित कहानी ‘अपर्णा’ थी, जो उनके बगल के शहर से प्रकाशित होनेवाली लघु पत्रिका ‘परिचय’ में १९६२ ई० में छपी थी। बड़ी पत्रिका (सारिका) में प्रकाशित होनेवाली पहली कहानी थी ‘किस्सा एक बीमा कंपनी की एजेंसी का’। यह कहानी ‘सारिका’ में अप्रैल १९७६ में प्रकाशित हुई थी। कहानी एवं उपन्यास दोनों विधाओं में उन्होंने समान रूप से क्रियाशीलता एवं दक्षता का परिचय दिया है।
अब तक उनके १२ कहानी संग्रह और १० उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। इनके अतिरिक्त दो बाल उपन्यास एवं कुछ अन्य रचनाएं भी प्रकाशित हैं। कहानी एवं उपन्यास दोनों विधाओं में तो अनेक लेखकों ने लिखा है, परंतु दोनों में समान क्रियाशीलता तथा समान उपलब्धि दुर्लभ रही है। कुछ का कहानीकार रूप प्रधान बना रह जाता है तो कुछ का उपन्यासकार रूप। आचार्य निशांतकेतु ने इन दोनों विधाओं में समान सिद्धि एवं प्रसिद्धि के प्रसंग में अनेक लोगों की चर्चा करते हुए प्रेमचन्द एवं जैनेंद्र कुमार के संदर्भ में लिखा है कि अब आलोचक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं और जिसकी चर्चा होती है कि ये दोनों रचनाकार कहानी तथा उपन्यास दोनों रचनाधर्मिता पर समान महत्ता और लोकसिद्ध प्रतिष्ठा के अधिकारी हैं। दोनों कथाकार दोनों विधाओं में समस्वर हैं।
परंतु संजीव इस क्रम में तीसरी कड़ी प्रतीत होते हैं। संजीव का अधिकांश लेखन शोध केंद्रित है। उनकी रचना-प्रक्रिया भी उनकी इस समझ को प्रकट करती है कि रचना भावावेग की परिणति से आगे बढ़कर संघर्षपूर्ण निर्माण की एक प्रक्रिया है। संजीव के प्रति सृंजय के कथन से भी यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है – अभीष्ट विषय पर रचना का एक ड्राफ्ट यह पूरा कर लेगा। फिर हम कुछ मित्र किसी दिन बैठक करेंगे। यह अपनी लिखत सुनाएगा… हम जमकर खिंचाई करेंगे… यह एक-एक नुक्स नोट करता रहेगा। दुबारा लिखकर कुछ असाहित्यिक आदमियों को सुनाएगा- कथा-रस और संप्रेषणीयता की परीक्षा के लिए… फिर तिबारा, कभी-कभी तो चार-पांच बार भी। यह अपने उपन्यासों को भी कई बार रिराइट करता है। स्वयं संजीव का मानना है कि बिना शोध और संधान के मुझे लगता है कि मैं नहीं लिख पाऊंगा।
वस्तुत: उनका लेखन पूरी तरह प्रतिबद्ध लेखन है। ‘कला कला के लिए’ का उनके लिए कोई महत्त्व नहीं है। ‘कला जीवन के लिए’ को वे मानते ही नहीं बल्कि जीते भी हैं। इस संदर्भ में बराबर उन्होंने गोगोल का उदाहरण दिया है। उनका कहना है कि गोगोल हमेशा ही मेरे लिए मानक रहा है, ‘उसने वह नहीं लिखा जो वह लिख सकता था, उसने वह नहीं लिखा जो जनता चाहती थी बल्कि उसने वह लिखा जिससे उसके समाज और देश का भला होता।’ अभी भी मेरा लक्ष्य वही है।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कला’ को वे महत्त्व नहीं देते। उनकी रचनाओं में कथ्य एवं शिल्प का अपूर्व संयोजन हुआ है। एक नजर में तथ्यों की बहुलता उन्हें आलोचकों की दृष्टि में समस्या उत्पन्न करती सी लगती है लेकिन जिस कौशल से वे तथ्यों के साथ स्थानीयता तथा वातावरण का भी सर्जनात्मक उपयोग करते हैं, वह उन्हें विशिष्ट बनाता है। डॉ. पुष्पपाल सिंह का स्पष्ट कथन है कि संजीव हमारे उन चंद समकालीन कथाकारों में अग्रणी स्थान रखते हैं जो रचना में विचार का संगुंफन अत्यन्त कुशलता, कीमियागिरी के साथ करते हैं, जिनकी कहानी को पढ़कर पाठक को एक वैचारिक सम्पन्नता तो मिलती है, यह प्रतीति भी बनी रहती है कि उसने कहानी पढ़ी है।
उनके अधिकांश उपन्यास गहन शोध की रचनात्मक परिणति है। ‘सर्कस’ में समाज की मुख्य जीवनधारा से भिन्न रूप में जीने वाले वर्ग की जीवन शैली तथा विडंबना, ‘सावधान! नीचे आग है’ में कोयलांचल के मजदूरों की त्रासदी, तथा ‘धार’ एवं खासकर ‘जंगल जहां शुरू होता है’ में आदिवासी जीवन की विषमताओं-विडंबनाओं का चित्रण करते हुए एक रचनात्मक प्रतिपक्ष की कोशिश स्पष्ट दिखती है। ‘सूत्रधार’ में लोकसाहित्यकार भिखारी ठाकुर का जीवन बहुआयामिता में चित्रित हुआ है, तो २०११ में प्रकाशित उपन्यास ‘रह गर्इं दिशाएँ इसी पार’ फिक्शन के माध्यम से रचना की नई जमीन तोड़ता है। अपने वैज्ञानिक अध्ययन एवं अनुभवों का पूरी तरह से रचनात्मक उपयोग करते हुए संजीव ने मानवीय विकास की असीम आकांक्षाओं के मध्य दुर्निवार विडंबनाओं के चित्रण-रूप में अपूर्व संसार रच डाला है। इस उपन्यास के संदर्भ में डॉ. मैनेजर पांडेय ने माना है कि विमर्श की इस बहुआयामी प्रक्रिया में संजीव हर तरह के अन्याय, अत्याचार तथा अतिचार के विरोधी हैं और अग्रगामी, न्यायसंगत तथा मानवीय दृष्टिकोण के पक्षधर रहे हैं।
लगभग चार दशकों की लंबी लेखन-अवधि में पैâली उनकी कहानी-यात्रा के पाठ केंद्रित आलोचन-विश्लेषण के क्रम में डॉ. रवि भूषण उनकी कहानियों को स्वतंत्र भारत की वास्तविक कथा का अभिधान देते है; साथ ही यह भी स्पष्टतया मानते हैं कि संजीव की कहानियों का फलक व्यापक है। प्रेमचंद और यशपाल को छोड़कर इतने बड़े कथा-फलक का अन्य कोई कथाकार हिन्दी में नहीं है।

(लेखक श्री जेजेटी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर व सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् और साहित्यकार हैं।)

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