मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : बुढ़ौती की लाठी बना नाती रमेश

काहें बिसरा गांव : बुढ़ौती की लाठी बना नाती रमेश

पंकज तिवारी

झूलन ददा और दादी शुरू से ही अकेले रह रहे थे। ददा बहुत बार तीज-त्योहारे, मौका-मतलबे पर भी बेटे जतन को घर आने को बोल चुके थे, पर नतीजा सिफर ही रहा। जतन को मुंबई गए कई वर्ष बीत गए थे, खर्चा खोराकी संभालने में ही दिन निकल जा रहा था। ददा और दादी को वो हमेशा वहीं बुलाता था कि यहीं आकर रहिए, पर बुढ़ौती में घर छोड़कर जाना जड़ से कट जाना होता है और ददा जड़ से कटना नहीं चाहते थे। परिणामत: ददा-दादी गांव में तथा बेटवा, पतोहू, नाती मुंबई में ही रह रहे थे। साथ रहे जमाने बीतने को थे कि इस बार ददा के बहुत कहने पर नाती रमेश मुंबई से गांव आनंद लेने आ गया था।
पैकेट वाला दूध पीने वाला रमेश अब दूध, दही, घी के साथ ही रह रहा था। शुरू में तो कुछ दिन सब कुछ बढ़िया बीता पर रमेश गोबर, घास, मिट्टी, धूल-धक्कड़ को देखकर हमेशा मुंह ही बिगाड़ता रहता था। ददा के समझाने पर भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वो बार-बार मुंबई जाने को ही परेशान रहता कि सरसों, मटर आदि के पिटाई एवं दंवाई का भी समय आ गया। ददा भेंसार होते ही हंसिया लिए खेत में निकल जाते थे, सरसों काटना, जंगेल उखाड़ना काम तो बहुत ज्यादा होता, पर ददा झटपट सब कुछ निपटाते जा रहे थे। धूप चढ़ते तक तो बहुत सारा जंगेल इकट्ठा हो जाता था। घर आते खा-पीकर थोड़ी देर आराम करते पर मन नहीं मानता और धूप में ही निकल जाते, वापस सांझ ढले ही आना होता था। काम लगातार चल रहा था। दादी भी पूरी तरह सहयोग में लगी हुई थीं, पर नाती को तो नौ बजे तक सोने की आदत थी। शुरू में ददा को लगा कि नाती हाथ बंटाएगा, पर नाती को कोई फर्क नहीं पड़नेवाला था। गांव का संस्कार तो जैसे कब का गायब हो गया था। ददा, दादी से कहते कि उसे समझाओ पर दादी हर बार टाल जाती थीं। एक दिन ददा से ही नहीं रहा गया और सुबहिए जगा दिए रमेश को। रमेश तिलमिला उठा, पर रिश्ते के महत्व को समझते हुए गुस्से को मन में ही दबा गया। गुस्से में ही ददा के साथ चल पड़ा नाती रमेश। रमेश जैसे-जैसे खेत की तरफ बढ़ रहा था रास्ते में सभी को काम करते हुए देख रहा था। हरखू के दुआर पर तो गजब ही हो गया, बड़े तो अपने काम-धाम में लगे हुए थे पर बच्चे मटर के जंगेल पर ही लगे बिस्तर पर सो रहे थे। जंगेल पर सोते बच्चों को देखना रमेश के लिए बिल्कुल ही नया था पलक झपकते ही सारा गुस्सा गायब अब उसे आनंद आने लगा था। पहली बार सुबह की शांत हवा, चिड़ियों की चहचहाहट, नीम के पेड़ से दातून तोड़ने के प्रयास में लगे लोग, लाल रौशनी के साथ जग को उजागर करने को आतुर भास्कर की मुस्कुराहट ने नाती रमेश को जैसे एक नई दुनिया के सैर पर पहुंचा दिया था। सुबह सवेरे दुआरे पानी दंवारते लोगों को देखकर भी उसे अचरज हुआ, पर मिट्टी में पैâली सौंधी महक उसके अंदर तक समा गई। रमेश को धीरे-धीरे चीजें अच्छी लगने लगी। अब तक उसका भी मन काम करने को आतुर हो उठा था। रमेश सरसों और मटर के काम में अब मन से लग गया। ददा और दादी के हर कामों में हाथ बंटाने लगा। मटर के जंगेल को दुआरे पर इकट्ठा करके बैलों के मुंह में खोंच लगा रमेश अब दंवाई करने लगा था और रह-रह कर गाना भी गाये जा रहा था। बैलों के पीछे गोल परिक्रमा करते हुए रमेश एक नए अनुभव से रूबरू हो रहा था और आनंद भी ले रहा था। अब तक उसके मन से मुंबई जाने का भूत भी उतर चुका था। ददा को जैसे ही मालूम चला कि रमेश अब यहीं रहना और पढ़ना चाहता है, उनका मन खुशियों से भर उठा।
(लेखक ‘बखार कला’ पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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