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राज की बात : लंबे चुनाव कार्यक्रम से सध रहे किसके हित? …महाराष्ट्र न बर्फीला इलाका है, न रेगिस्तान

द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई

चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि २०२४ के लोकसभा और कुछ राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव १९ फरवरी से १ जून तक संपन्न कराए जाएंगे और चार जून को नतीजे घोषित होंगे। प्रथम संसदीय चुनावों के बाद यह दूसरा सबसे लंबी अवधि वाला चुनाव होगा।
१९५१-५२ का पहला संसदीय चुनाव चार महीने से अधिक समय तक चला, जिससे यह भारत में सबसे लंबी मतदान अवधि बन गई। दूसरी ओर, १९८० के चुनाव केवल चार दिनों में पूरे कर लिए गए थे, जिससे यह भारत में सबसे छोटा चुनाव बन गया। सात चरणों के इस चुनाव को लेकर तमाम तरह के विवाद खड़े हो रहे हैं जिसका मजबूत तर्क भी है। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार द्वारा पेश किए गए तर्क बेहद कमजोर हैं और मौसम, भूगोल और सुरक्षा के नाम पर गुमराह करने वाले हैं। उन्होंने कहा है कि तारीखें क्षेत्रों की भूगोल और सार्वजनिक छुट्टियों, त्योहारों और परीक्षाओं जैसे अन्य कारकों के आधार पर तय की गर्इं।
देश का पहला आम चुनाव २५ राज्यों के ४०१ निर्वाचन क्षेत्रों की ४८९ लोकसभा सीटों के लिए २५ अक्टूबर, १९५१ और २१ फरवरी, १९५२ के बीच ६८ चरणों में हुआ था। ३१४ निर्वाचन क्षेत्रों में से प्रत्येक में एक सदस्य चुना गया। ८६ निर्वाचन क्षेत्रों में दो सदस्य चुने गए (एक सामान्य श्रेणी से और एक अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति श्रेणियों से)। एक निर्वाचन क्षेत्र में तीन प्रतिनिधि चुने गए। १९६० के दशक में बहु-सीट निर्वाचन क्षेत्रों को समाप्त कर दिया गया था। १९६७ तक लोकसभा चुनाव के लिए जम्मू और कश्मीर में कोई मतदान नहीं हुआ। उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए इसे समझा जा सकता है। देश नया आजाद हुआ था। संविधान बने और लागू हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था। विभाजन की त्रासदी से देश धीरे-धीरे उबर रहा था। प्रशासन को पटरी पर लाने की चुनौती थी। तो ऐसी स्थिति में चुनाव चार महीने चलना स्वाभाविक था।
१९६२ से १९८९ के बीच लोकसभा चुनाव की अवधि चार से दस दिन के बीच थी। सबसे छोटा चुनाव १९८० में ३ से ६ जनवरी तक हुआ था, जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आई थीं।
२००४ में, चार चरण के लोकसभा चुनाव में २१ दिन लगे; २००९ में पांच चरण थे और प्रक्रिया एक महीने लंबी थी। २०१४ में चुनाव नौ चरणों में हुआ था और इसमें ३६ दिन लगे थे। २०१९ में चुनाव सात चरणों में हुआ और इसमें एक महीने से ज्यादा का समय लगा।
आशंका है कि सात चरण की मतदान योजना से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को फायदा पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। इस आशंका को बल इस बात से मिलता है कि जिन राज्यों में भाजपा का कोई वजूद नहीं है, वहां फटाफट एक ही चरण में चुनाव कराए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु। दिलचस्प बात यह है कि आंध्र प्रदेश में सभी २५ लोकसभा और सभी १७५ विधानसभा सीटों पर एक ही तारीख १३ मई को मतदान हो रहा है। मतलब लगभग दो हजार उम्मीदवार होंगे और सैकड़ों ईवीएम का इस्तेमाल होगा, लेकिन चुनाव आयोग को वहां एक दिन में मतदान से कोई दिक्कत नहीं है।
दरअसल, दक्षिण के सभी राज्यों में भाजपा का कोई जनाधार नहीं है। इसलिए चुनाव आयोग ने इन राज्यों में अधिक चुनाव तारीखों की परवाह नहीं की और इन राज्यों में एक ही दिन में चुनाव निपटाने की घोषणा की गई है। इससे इस कयास को बल मिलता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन राज्यों में चुनाव प्रचार के लिए बहुत उत्सुक नहीं हैं। इसके अलावा इन राज्यों में स्थानीय क्षेत्रीय दलों को भी एक ही दिन में मतदान के कारण प्रचार में मुश्किलें होंगी। तो फार्मूला है- न ज्यादा प्रचार करूंगा, न करने दूंगा।
कर्नाटक, जहां भाजपा की कुछ मौजूदगी है, वहां इसीलिए दो चरणों में मतदान है। इससे पता चलता है कि भाजपा ने पहले ही इन राज्यों में हार मान ली है और वह इन राज्यों के लिए और समय नहीं चाहती है, जबकि जिन राज्यों में भाजपा को लगता है कि उसे विपक्ष पर बढ़त है, वहां चुनाव को तीन, चार ,पांच, छह या सात चरणों में फैला दिया गया है।
महाराष्ट्र में पांच चरणों को लेकर सवाल उठ रहे हैं। महाराष्ट्र एक शांतिपूर्ण राज्य है और यह कोई बर्फीला या रेगिस्तानी इलाका नहीं है। फिर राज्य में चुनाव के लिए पांच चरणों की आवश्यकता क्यों है? जब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव एक ही चरण में आयोजित किए जाते हैं, तो आखिर लोकसभा के चुनाव पांच चरणों में करने की क्या आवश्यकता पड़ गई? महाराष्ट्र कोई उपद्रवग्रस्त राज्य नहीं है और न तो यहां मौसम या भूगोल की कोई समस्या है।
अब भाजपा नेताओं सहित भाजपा समर्थक यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर सात चरणों में चुनाव से किसी को क्या डर है। अगर भाजपा को प्रचार के लिए ज्यादा समय मिल रहा है तो विपक्ष के लिए भी तो समान अवसर मिल रहा है, लेकिन सच्चाई यह नहीं है। इलेक्टोरल बॉन्ड से जमा हजारों करोड़ भाजपा के पास हैं, जबकि विपक्ष के पास संसाधनों की भारी कमी है। लंबे समय तक चलने वाली चुनाव प्रक्रिया से ‘गहरी जेब’ वाले राजनीतिक दलों को फायदा मिल सकता है।
दूसरी चिंता यह है कि ईवीएम मशीनें एक स्थान पर एक से डेढ़ महीने तक सीलबंद रखी जाएंगी और उनके साथ छेड़-छाड़ के खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें सत्तारूढ़ दल द्वारा नाजायज फायदा उठाने की आशंका बनी रहती है।
आधुनिक तकनीकों के इस जमाने में इतने लंबे समय तक चुनाव कराने का कोई औचित्य नहीं है। चुनाव अमेरिका में भी होते हैं जो भारत के क्षेत्रफल से तीन गुना बड़ा है और जहां २५ करोड़ वोटर हैं। वहां हर चार वर्ष में नवंबर के पहले मंगलवार को मतदान एक ही दिन में संपन्न हो जाता है। इसी वर्ष इंडोनेशिया में १४ फरवरी को चुनाव संपन्न हुए, जबकि वहां की २० करोड़ आबादी ६००० से ज्यादा टापुओं पर बिखरी हुई है। इस अद्भुत कार्यकुशलता के लिए दुनियाभर में इंडोनेशिया की तारीफ हो रही है। दुनिया के लगभग ५० देशों के ४०० करोड़ मतदाता इस वर्ष अपनी सरकारें चुनेंगे। भारत को छोड़कर लगभग सभी देशों में मतदान एक ही दिन संपन्न होंगे। लंबे समय तक चुनाव होने से सारे विकास कार्य ठप हो जाते हैं और पूरे देश का ध्यान सिर्फ चुनावों की ओर रहता है। कई- कई चरणों में चुनाव कराने की इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की बहुत आवश्यकता है।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

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