मुख्यपृष्ठस्तंभपुस्तक समीक्षा : ‘प्रखर' की जीवन यात्रा का दर्पण ‘रुको नहीं पथिक'

पुस्तक समीक्षा : ‘प्रखर’ की जीवन यात्रा का दर्पण ‘रुको नहीं पथिक’

राजेश विक्रांत

सुप्रसिद्ध साहित्यकार भगवान वैद्य ‘प्रखर’ के अब तक चार व्यंग्य-संग्रह, तीन कहानी-संग्रह, दो कविता-संग्रह, और तीन लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। अनुवाद विधा में मराठी से हिंदी में छह पुस्तकें तथा ४० कहानियां, कुछ लेख, कविताओं का प्रकाशन हुआ है। व्यंग्य और लघुकथा में उनका कोई सानी नहीं है। इन्हीं की आत्मकथा है ‘रुको नहीं पथिक’। प्रखर के अनुसार लेखक का ह्रदय उस घड़े की तरह होता है जो बूंद-बूंद रिसता रहता है। फर्क यह है कि यह जितना रिसता है, उतना तृप्त होता जाता है। रुको नहीं पथिक में प्रखर का रिसना पाठकों को रुलाता है, आंखें नम करता है, लेखक में ईमानदारी व संघर्ष का अनुपम जज्बा पाठकों को गर्व भी प्रदान करता है। इस पुस्तक में न लिखता तो…, मुकाम पोस्ट: साटक, तहसील-रामटेक, एक दुर्घटना जिसने सब कुछ बदल दिया, दुर्दिनों का आगाज, अविस्मरणीय मैट्रिक-परीक्षा, मैट्रिक से १३ सितंबर १९६२ तक, जद्दजेहद, अज्ञातवास, रास नहीं आया, पी. डब्लू. डी., दिसंबर १९६५ से मार्च १९७१, हिंदी की राह पर, आत्म-साक्षात्कार तथा लेखकीय अनुभव के तहत प्रखर जी ने अपनी बातें कहीं हैं। वे लिखते हैं, न लिखता तो कौन जानता कि मेरी गर्भनाल रामटेक की बजाय साटक नामक उस छोटे-से देहात में गड़ी हुई है! ..अगर चित्रकार होता तो घर से खेत की ओर जाता हुआ वह ऊबड़-खाबड़ कच्चा रास्ता चित्रित करता जिस पर पारिवारिक झगड़े में पिता लहूलुहान हुए थे। एक चित्र वह भी बनाता जिसमें पुराने घर में रखे हुए महाजनी ठाठ दिखाते साज-सामान होते। ..यह आत्मकथा न लिखता तो सिनेमा देखने के लिए दुकान से पैसे उड़ाकर तब्बू (बदला हुआ नाम) ने पिछवाड़े छिपाकर रखना और मैंने शाम को जाकर वे पैसे निकालकर ले आना-यह तब्बू और मेरे अलावा कोई वैâसे जान पाता?… जरूरत थी तब मौसी ने बारह आने रोज की नौकरी दिला दी थी। एक सप्ताह मौसी के घर रुका। काम किया, लेकिन उनके घर से बिदा लेने के बाद जीवन में फिर कभी उनके घर क्यों नहीं गया-यह आत्मकथा न लिखता तो लोग कैसे जान पाते? अनंत चतुर्दशी हर साल आती है। किसे और वैâसे बतलाऊँ कि यह वही रात है जब नागपुर मेडिकल कॉलेज के कॉरिडोर से रात बारह बजे, बाहर सड़क पर गणेश- विसर्जन का जुलूस देख ही रहा था कि नर्स ने आकर पिताजी के निधन का समाचार दिया था और कुछ समय बाद कार में, पिताजी का शव जंघा पर रखकर रामटेक जाना पड़ा था।.. आत्मकथा न लिखता तो कैसे उद्घटित होता कि वह कौन-सी बात है जिसके कारण तेरहवी के भोज के प्रति मेरे मन में कड़ी वितृष्णा और विक्षोभ है। ..सभी जानते हैं कि दुनिया में अवसरवादियों की, मनुष्य के भेष में भेड़ियों की कमी नहीं है। लेकिन मुझे मिले हुए भगवान सिंह बैस समान ‘देवदूतों’ के बारे में दुनिया कब और वैâसे जान पाती। वैâसे कोई जान पाता कि मुझे अकरा, बारा की बजाए हिंदी में ग्यारह …बारह सिखाने वाला व्यक्ति कोई शिक्षक नहीं बल्कि मामा का नौकर रऊफ था।
‘रुको नहीं पथिक’ में ऐसे कई प्रसंग हैं जो संघर्ष, पीड़ा, अपमान व रिश्तों की दरकती दुनिया के गवाह हैं। प्रखर के पिता का एक्सीडेंट हुआ, दुर्दिन शुरू हो गए। अपनों ने मुंह मोड़ लिया। मां मेहनत मजदूरी करने लगी। खदान में पत्थर भी तोड़ा। पिता एक खदान में चौकीदारी करने लगे। मैट्रिक परीक्षा की २४ रुपए फीस हेडमास्टर जोशी ने भरी। पिता के निधन के बाद ‘प्रखर’ ने होटल में काम किया। खदान में बांस का गट्ठर बनाया, ऑफडे चौकीदारी की, छिंदवाड़ा में पहले चपरासी बने, फिर लोअर डिवीजन क्लर्क हुए, जबलपुर टेलीग्राफ में टाइम स्केल क्लर्क हुए। फिर से पढ़ाई शुरू की। एलआईसी में नौकरी ने जीवन को स्थायित्व दिया। लिखना शुरू किया और नामचीन लेखक बने। प्रिय मित्र व १९९० के दशक से मेरे साथी प्रखर की आत्मकथा ‘रुको नहीं पथिक’ के १५२ पृष्ठों में पाठक बहुत कुछ पढ़ सकते हैं। इस रोचक आत्मकथा को बोधि प्रकाशन, जयपुर ने प्रकाशित किया है। हार्डबाउंड संस्करण की कीमत २५० रुपए है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक मामलों के जानकार हैं।)

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