संजय राऊत -कार्यकारी संपादक
सिंदखेड राजा में लखुजीराजे जाधव का वाड़ा आज भी मौजूद है। जिजाऊ माता का जन्म यहीं हुआ था। मराठों के स्वराज्य का भव्य सपना इसी वाड़ा में जन्मा और शिवनेरी, रायगढ़ की दिशा में तेजी से बढ़ा। यह वाड़ा महाराष्ट्र का सबसे पवित्र स्थान है। इस वाड़ा को संरक्षित करना जरूरी है। आज सब कुछ बंजर और वीरान हो गया है।
बुलढाणा की यात्रा में सिंदखेड के ऐतिहासिक वाड़ा में जाना हुआ। यह जिन्होंने महाराष्ट्र को शिव छत्रपति राजा दिया, उन जिजाऊ माता की जन्मस्थली है। यह वाड़ा लखुजीराजे जाधव का है। शहाजीराजा की ससुराल। इतिहास के उतार-चढ़ाव का गवाह रहा यह वाड़ा पुरातत्व विभाग के अधीन है। इसी वाड़ा में जिजाऊ माता का जन्म हुआ था। आज यहां दीवारें तो हैं, पर छत नहीं। खुले आसमान के नीचे यह वाड़ा खड़ा है। ऐतिहासिक इमारतों को कैसे संरक्षित किया जाए, ये हमारे पुरातत्व विभाग को यूरोप-अमेरिका में जाकर देखना चाहिए। किसी समय यह वाड़ा अनगिनत दीयों की रोशनी से जगमगाता था। लखुजीराजे जाधव का यह खानदानी वाड़ा है। कल के छत्रपति का सपना इसी वाड़ा में जन्मा था। इस वाड़ा के शिखर पर कभी राजसी वैभव का छत्र छाया रहता था। वह वाड़ा आज केवल दीवारों की वजह से खड़ा है। कहा जाता है कि इसी वाड़ा में लखुजीराजे जाधव और शहाजीराजा के बीच विवाद हुआ था। यह विवाद स्वराज्य के मुद्दों पर हुआ था और क्रोधित लखुजीराजे जब पैर पटककर चलते थे तो पूरा वाड़ा हिल जाता था।
खंडहर हुआ वास्तु
एक ऐतिहासिक पवित्र वास्तु खड़ा है, लेकिन वो खंडहर की तरह नजर आता है। जिस रजवाड़े में छोटी जिजा ने शेवंती को रोपा था, आज वो बगीचा दिखाई नहीं देता। जिजा का विवाह इसी वाड़ा में तय हुआ था। एक रंगपंचमी पर गुलाल उड़ाया गया। समारोह में लखुजीराजे एक पिता के रूप में मौजूद थे। पिता के स्नेह में उन्होंने जिजा को अपनी गोद में एक तरफ बिठाया और दूसरी तरफ अपने यहां नौकरी करनेवाले मालोजी भोसले के पुत्र शहाजी को बिठाया। रंगपंचमी पूरे जोरों पर है और लखुजीराजे मजाक में बोल गए, ‘जोड़ी कितनी प्यारी लग रही है?’ लखुजी जाधव का वह बात सच साबित हुई। मालोजी और लखुजी रिश्ते में बंध गए। यह सारा इतिहास इसी स्थान पर घटित हुआ। नाते जु़ड़ गए और वाड़ा में उत्साह का उत्सव शुरू हुआ, जो कई दिनों तक चला। सिंदखेड की बेटी दौलताबाद में आई। वेरुलकर भोसले की वह बहू बनी। विदर्भ और मराठवाड़ा के बीच इस तरह से रिश्ता बन गया। जिजा मराठवाड़ा से आकर पुणे की शिवनेरी पर बस गर्इं, लेकिन महाराष्ट्र की नियति का जन्म हुआ सिंदखेड के इसी लखुजीराजे के वाड़ा में। सिंधखेड में जो जिजा थीं, वो शिवनेरी और रायगढ़ जाकर राजमाता बन गर्इं। इस राजमाता का जहां जन्म हुआ, उस सिंदखेड के वाड़ा के एक बुर्ज पर खड़ा होकर मैं इस ‘शिव संभव’ नाट्य का मानो जैसे साक्षात अनुभव कर रहा था। एक सपना जो कभी संभव नहीं था, वह इस वाड़ा में जन्मा और वाड़ा की मीनारों से आगे बढ़ा। स्वाभिमानी लखुजीराजे जाधव लंबे-लंबे कदम बढ़ाते हुए उस वाड़ा के मुख्य चौक में येरजारा पहन रहे हैं और छोटी जिजा अपने बहादुर पिता की घनी मूंछों और कमर पर लटकी तलवार को प्रशंसा से निहार रही हैं, ऐसी तस्वीर आंखों के आगे बन गर्ई। आज वहां लखुजीराजे की भव्य समाधि है। दामाद शहाजीराजा को स्वतंत्रता की तड़प थी, लेकिन उनके प्रयास सफल नहीं हो पाए। बेटी जिजा को महाराष्ट्र का राजा बनाना चाहते थे, लेकिन पराक्रमी लखुजी जाधव यह सपना साकार होने से पहले ही निजामशाही के हत्यारों के शिकार हुए और वहीं विश्राम कर गए। मैंने उनकी समाधि पर सूखी पत्तियां उड़ती हुर्इं देखी हैं। दिल्ली-वीजापुर के मुगलों की सेवा में महाराष्ट्र के वीर सरदार रहे। उनके मन में आजादी की चाहत थी, लेकिन शिवाजी राजे जिद से डटे रहे। उन शिवाजी राजा के पराक्रमी दादा ने इसी वाड़ा के प्रांगण में विश्राम किया। वह वाड़ा उस मायने में अब वाड़ा नहीं रहा। शिवबा की मां का जन्म जहां हुआ, वहां एक मंदिर खड़ा है। बाकी सब बंजर और उजाड़ है।
मातृतीर्थ!
सिंदखेड राजा में राजमाता जिजाऊ का जन्मस्थल ये मातृतीर्थ है, लेकिन इसका महत्व उतना बरकरार नहीं हो पाया है, जितना होना चाहिए। भावना विहीन और इतिहास के बोध से रहित पुरातन विभाग ऐसे ऐतिहासिक स्थलों की देख-रेख करता है, लेकिन उस देख-रेख में उदासीनता है। मैं सिंदखेड गया तब मुझे वहां क्या दिखा? गांव का वह पुराना कालाकोट आज भी वहीं है। राजवाड़ा के सामने के विशाल पटांगण में दीपमाल आज भी खड़ा है। बाहर अब एक बगीचा बन गया, लेकिन अंदर जाने पर कांटे और झाड़ियां हैं। यह वाड़ा आज भी भव्य है। वाड़ा का मुख्य प्रवेश द्वार तीन भागों में विभाजित है। नीचे देवड्या, बीच में नागरखाना और उस पर सजावट। लखुजीराजे या उनके बेटे जब वाड़ा में प्रवेश करते या वाड़ा से बाहर निकलते तो नगाड़े बजाए जाते थे। मुख्य प्रवेश द्वार पर आज भी १४ नारियल का तोरण स्पष्ट नजर आता है। ये १४ नारियल पत्थरों में तराशकर बनाए गए हैं। नारियल का तोरण समृद्धि, वीरता और साहस का प्रतीक है। ये सभी लखुजीराजे के निमित्त से वाड़ा में मौजूद रहेंगे। लखुजी का यह वाड़ा १६वीं शताब्दी का है। मराठा वास्तुकला का एक बेहतरीन उदाहरण। यहां पहले मिट्टी की दीवारें थीं। आज र्इंट की दीवारें खड़ी हैं। कभी यहां म्हालसा वाड़ा था। दरबारी वाड़ा था। म्हालसा लखुजी की पत्नी, यानी जिजाऊ की माता। उन्हीं के नाम से यह वाड़ा खड़ा रहा। वाड़ा दो मंजिला था। नीचे पत्थरों का निर्माण, ऊपर सागौन लकड़ी का निर्माण। उस वैभव के वाड़ा में छोटी जिजा आनंद से रही, बढ़ी और एक भव्य स्वप्न लेकर शिवनेरी गई। इस लिहाज से महाराष्ट्र में सबसे पवित्र इमारत यही है। रायगढ़ की तलहटी में राजमाता जिजाऊ की समाधि आज भी है, लेकिन सिंदखेड राजा के वाड़ा की सीढ़ियों पर, चौखटों पर और आला पर जिजाऊ के निवास के निशान मौजूद हैं। महाराष्ट्र की राजमाता का भव्य स्मारक यहीं बनना चाहिए था। राजवाड़ा और रंगवाड़ा इन दोनों वास्तुओं को संरक्षित करके किनारे पर सुंदर हरियाली बनाई गई थी। वह अब नजर नहीं आती। ऐसा महसूस होता है, जैसे किसी वीरान स्थान में प्रवेश कर रहा हूं। जिस माता ने महाराष्ट्र में हिंदू स्वराज की स्थापना के लिए बाल शिवाजी से सोने का हल चलवाया था, उनकी जन्मभूमि पर महाराष्ट्र को सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए। वा़ड़ा के कमरे तहखाने की तरह हैं। एक पंक्ति में कई कमरे हैं। एक बार अंदर जाने के बाद भ्रम निर्माण होता है। वहां की प्रसन्नता पूरी तरह से खत्म हो गई हैं। वाड़ा की दीवारें और कमानी ढह गई हैं। सिंदखेड राजा की पवित्रता गंगा-गोदावरी से भी अधिक है। महाराष्ट्र में जीवन लाने वाला इतिहास इसी भवन में घटित हुआ था। यहीं एक मां का जन्म हुआ। उन्होंने महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देश को एक स्वाभिमानी राजा दिया। हिंदू स्वराज्य का सपना यहीं पैदा हुआ और उस सपने की मशाल महाराष्ट्र के कोने-कोने तक गई, उस सिंदखेड राजा तक मैं पहुंच पाया श्री. उद्धव ठाकरे के साथ। उद्धव ठाकरे लखुजीराजे जाधव के वाड़ा में गए तब वे भी रोमांचित हो गए, लेकिन महाराष्ट्र को रोमांचित करनेवाले इस वाड़ा के इतिहास को संरक्षित करना चाहिए, ऐसा किसी को क्यों नहीं लगता? केवल लखुजी जाधवराव का वाड़ा ही नहीं, बल्कि सिंदखेड राजा के पूरे क्षेत्र को ही विकसित करने की जरूरत है।
यदि हमने जिजाऊ माता की जन्मस्थली का संरक्षण नहीं किया, तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। छत्रपति शिवराय का नाम क्यों लेते हो? यह सवाल कल की पीढ़ी पूछेगी। उन्हें क्या जवाब दोगे?