सैयद सलमान
मुंबई
यह सप्ताह भी बड़ा आध्यात्मिक रहा। मुस्लिम समाज के रमजान महीने में रोजे रखे जा रहे थे कि उसके खत्म होते-होते गुढी पाडवा आ गया। चैत्र नवरात्रि की शुरुआत हो गई। अब यह संयोग देखिए कि हिंदू-मुस्लिम एक साथ उपवास रख रहे हैं। शाम को फलों की दुकानों, ठेलों और फुटपाथों पर फल बेचने वालों के खोमचों पर लगी भीड़ कोफ्त नहीं बल्कि अजीब सी खुशी दे रही थी। ईद-उल-फित्र का त्यौहार भी बीत गया। आध्यात्मिकता के नजरिए से देखिए तो ऐसा महसूस हुआ कि मुसलमानों ने अपने उपवास को अपने हमवतन हिंदू भाइयों को हैंड ओवर कर दिया कि अब अगले कुछ दिन इस जिम्मेदारी को आप निभाइए। लेकिन यह सोचना तभी संभव होगा जब मन में किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं होगी। यकीन मानिए, आज इस सकारात्मकता की सबसे ज्यादा जरूरत है। खासकर मुस्लिम समाज को। रटे-रटाए किस्से कहानियों से बाहर निकलकर कुरआन के सही तर्जुमे और उसकी आयतों के नाजिल होने के संदर्भों का अध्ययन कर इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। हालांकि, अनगिनत फिरकों में मुसलमानों के लिए यह काम मुश्किल जरूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं।
जहां तक किसी भी धर्म की व्याख्या का सवाल है तो धर्म लोगों को एक सूत्र में बांधता है। साथ ही, अधर्मी व्यक्ति और समाज के बीच अनुचित रूप से मतभेद पैदा करता है। हमारे देश में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। तरह-तरह की संस्कृतियां उनमें पाई जाती हैं। रस्म-ओ-रिवाज कहीं बिलकुल अलग, कहीं एकदम मिलते-जुलते हैं। यदि हम उन सभी का अध्ययन करें तो उनमें मूलत: अहिंसा, प्रेम और सद्भाव का संदेश झलकता है। कोई भी धर्म इसके खिलाफ रवैया अपनाने की इजाजत नहीं देता। इस्लाम में जिहाद की परिभाषा कुछ और गढ़ने वालों को भी इसे सीखने की जरूरत है। कुछ पाखंडी धार्मिक नेता धर्म के नाम पर लोगों को गुमराह जरूर करते हैं। ऐसे लोग ही हमारे देश की अखंडता और संस्कृति को विभाजित करने का प्रयास कर रहे हैं। वे कण-कण और घट-घट में निवास करने वाली दुनिया की महाशक्ति को उनके पुकारे जाने वाले ईश्वर, अल्लाह या गॉड नाम को मंदिर, मस्जिद, चर्च गुरुद्वारों और घंटाघर तक ही सीमित कर रहे हैं। मानव कल्याण के लिए यह पूर्णतया गलत, अधर्म और अनुचित है। सर्वशक्तिमान परम शक्ति एक है। इसका स्वरूप कण-कण में विद्यमान है। उसी के इशारे से जीव चलता, बोलता और सांस लेता है। यह जानते हुए भी कि वेद, गीता, कुरआन, बाइबिल, गुरुग्रंथ साहिब जैसे धर्मग्रंथ मानवजाति को संबोधित करते हैं, हम उन्हें धर्म विशेष की किताब बना देते हैं। हम अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर मेरा-तेरा करके ईश्वर के साथ भी अन्याय ही कर रहे होते हैं। इससे हासिल क्या होता है? हमें बस क्षणिक खुशी, धन और रहने को थोड़ी सी जमीन मिलती है। सारा जीवन मृगतृष्णा में, उसकी रखवाली में बीत जाता है। जीवन मोह माया में ही बीत जाता है। इंसान जीवन के मूल उद्देश्य से भटक जाता है। अंत में होता क्या है, धीरे-धीरे बुढ़ापा आता है और फिर शरीर प्राण छोड़ देता है। मनुष्य मोक्ष से दूर और सब कुछ खत्म।
जो धर्म लड़ना सिखाता है या हिंसा का उपदेश देता है, वह धर्म नहीं हो सकता। फिर वह कोई भी धर्म हो। धर्म जोड़ता है, तोड़ता नहीं। सभी की मान्यताएं, पंथ और संप्रदाय अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन सबका धर्म एक है, वह है मानवता। रास्ते भले ही अलग-अलग हों लेकिन मंजिल एक है। सभी जीव-जंतु एक ही ईश्वर की रचना हैं, तो लोग एक दूसरे से क्यों लड़ते हैं? आज लोग हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि बन गए हैं। हालांकि, इसमें कोई बुराई नहीं है। बस धर्म अपने विवेक से यह सोचने पर मजबूर करने वाला हो कि क्या लोग सच्चे इंसान बन पाए हैं या नहीं? यानी अपने धर्म का सम्मान करने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन दूसरों के धर्म या उनके देवी, देवता, अवतारों या पैगंबरों, धर्मगुरुओं का अनादर कतई नहीं करना चाहिए। धर्म सांस्कृतिक प्रणालियों, विश्वास प्रणालियों और विश्व के दृष्टिकोणों का एक समूह है जो मानवता को आध्यात्मिकता और कभी-कभी नैतिक मूल्यों से जोड़ता है। कई धर्मों में कहानियां, प्रतीक, परंपराएं और पवित्र इतिहास हैं, जिनका उद्देश्य जीवन को अर्थ देना या जीवन या ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या करना है। सभी धर्म के लोगों में बढ़ती नफरत का कारण अपने धर्म को लेकर की गई अलग-अलग व्याख्या का शिक्षण है। लेकिन लोग यह शिक्षा भूल गए कि ‘दूसरों के साथ वह मत करो जो तुम्हें अपने साथ करने से नफरत है।’ मुस्लिम समाज को इस दिशा में खास ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि उन्होंने धर्म की व्याख्या लकीर के फकीर आज के मुल्ला मौलवियों से सीखी है, जिनके आपस में ही हद दर्जे के इख्तेलाफात हैं।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)