अजय भट्टाचार्य
सांप ने चूहे से कहा, `तुम में जहर नहीं है, इसलिए तुम कमजोर हो! जिसके अंदर जहर होता है, दुनिया उसकी इज्जत करती है…उसका सिक्का चलता है। जब तुम्हारे पास जहर होगा, तभी लोग तुमसे डरेंगे!’ सांप शांत स्वर में बोला।
चूहा ध्यान से सब सुनता रहा। चूहे को बात समझ में आई।
`फिर मुझे क्या करना चाहिए!’ – चूहे ने पूछा।
`सीधी-सी बात है…तुम्हें अपने अंदर जहर पैदा करना चाहिए।’
`वह सब तो ठीक है, मगर अपने अंदर जहर वैâसे पैदा करूं?’ स्पष्ट था कि चूहा हर हाल में समाधान चाहता था।
`तुम चाहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूं!’
`कैसे!’
`चाहो तो मुझसे जहर ले लो!’
ताकत की चाह में चूहे ने फौरन हामी भर दी। सांप मुस्कुराया….!
फिर क्या था, मौका मिलते ही सांप ने अपना जहर चूहे में उतार दिया। रगों में लहू के साथ जहर मिलते ही चूहे का बदन नीला पड़ गया। चूहा हमेशा के लिए शांत हो गया।
चूहे का शव लेकर सांप अपनों की सभा में पहुंचा, जहां उसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। चूहे का शव देखकर सभी सांप उत्साह से भर उठे। वे जोर-जोर से फुंफकारते हुए नारे लगाने लगे। सभा शुरू हुई।
`दोस्तों! मेरे प्यारे दोस्तों!’ सांप बोला।
साथी सांप गौर से उसे सुनने लगे। वहां शांति छा गई। चूहे की लाश को दिखाते हुए वह बोला- `दोस्तों! जैसा कि मैंने आपसे कहा था, वह मैंने कर दिखाया है। नतीजा आप सबके सामने है।’ –
सभी सांपों ने हिश! हिश! करके उसका समर्थन किया।
वह आगे बोला, `हम पहले से ही बहुत बदनाम हैं, अब हमें और बदनाम नहीं होना है! अब देखिए साथियों! मैंने यह काम लोकतांत्रिक ढंग से किया…अब हम पर कोई हिंसा का इल्जाम नहीं लगा सकता। इस चूहे ने मुझसे खुद जहर मांगा…’ यह कहते हुए सांप का फन तन गया।
सभी सांपों ने हिश! हिश! कर काफी देर तक अपनी खुशी जाहिर की।
`साथियों! आप पहले दिलों में जहर भरिए। वह जेहन में खुद ब खुद आ जाएगा और विषय अपने रगों में उतारने के लिए बेचैन हो जाएगा।’ `विषय’ शब्द सुनकर सांपों के बदन में सुरसुरी-सी दौड़ गई।
वह धारा प्रवाह बोलता रहा, `बस हमें सपने और भय दोनों साथ-साथ दिखाने होंगे! अच्छे-अच्छे शब्दों के चयन पर ध्यान केंद्रित करना होगा।’ उसने चूहे की लाश पर एक नजर डाली फिर बोला, `देखिए! वैâसे हमारे रंग में यह रंगने के लिए तैयार हो गया।’
सभी सांप चूहे के नीले बदन को देखने लगे…वे अजब रोमांच से भर उठे।
वह आगे बोला, `जहर भरिए, खूब भरिए, मगर उपदेश की शक्ल में…आप देखेंगे कि उपदेश स्वत: उन्माद में बदलता जाएगा…बस पैâलकर हर जगह हमें अपना काम लगातार करते रहना है। क्या समझे?’
एक बूढ़ा सांप जोश में बोला, `समझ गए! हमें लोकतंत्र को लोकतांत्रिक ढंग से खत्म करना है।’
`बिल्कुल सही!’ सांप गर्व से बोला।
`ये चूहा तो फंस गया, मगर क्या गारंटी है कि सभी फंसेंगे।’ दुविधा से भरे एक युवा संपोले ने सवाल किया।
`यह बहुत अच्छा सवाल है!’ सांप यह बोलकर थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर फुंफकारता हुआ बोला, `जब तक लोगों में वर्चस्व की भावना प्रबल रहेगी, तब तक मुझे कोई दिक्कत नहीं दिखती।’ यह सुनते ही सभी सांपों में हर्ष की लहर दौड़ गई।
`बस वर्चस्व को उत्कर्ष की शक्ल में बेचो।’ -उसने बुलंद आवाज में यह बात कही।
पल भर में सभा जोशीले नारों से गूंज उठी और सांपों की सभा ने एकमत से उसे अपना नेता चुन लिया। नए-नवेले नेता ने बहुत प्यार से कहा, `आइए! अब हम प्रार्थना शुरू करते हैं।’
सभी सांप समवेत स्वर में प्रार्थना करने लगे-
`लोकतंत्र खुद को डसवाकर हमको दूध पिलाता है।
जो जितना जहरीला है, वह उतना पूजा जाता है।
चूहे की लाश पड़ी हुई थी। अभी न जाने और कितनी लाशें वहां आने वाली थी। लोकतंत्र की वेदी परवान चढ़ चुकी थीं। हर चूहा अपने वर्चस्व के लिए जहर पीने को तैयार था। संस्कृति बचाने के लिए इतना तो किया ही जा सकता था। सांपों का नेता मुस्करा रहा था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं तथा व्यंग्यात्मक लेखन में महारत रखते हैं।)