मुख्यपृष्ठस्तंभब्रजभाषा व्यंग्य : अपने'न कौ संग

ब्रजभाषा व्यंग्य : अपने’न कौ संग

संतोष मधुसूदन चतुर्वेदी

बुड्ढे पिताजी नें जिद्द पकर लीनी की बिनकी खाट कूं बाहिर दालान मै डार दी जाबै। बेटा परेसान हतो…बहू बड़बड़ाय रही हती….। कोऊ बूढ़ेन कूं अलग्ग कबरा नाँय देबै, हमने दूसरी मंजिल पै कबरा दियौ….एसी, टेलीविजन, प्रिâज सबरी सुविधाएं हतैं, नौकन्नी ऊ दै राखी हतै। पतौ नाँय, सत्तर की उमर मै सठियाय गये हतै..?
पिता कमजोर औरु बीमार हतैं….जिद कर रहे हतैं तौ बिनकी खाट कूं दालान मै डरबाय दुंगो, रफीक नें या तरियां की बात सोची। बाप की इच्छा कूं पूरी करनौ बानें अपनों फरज बनाय लियौ।
अब बाप की एक खाट दालान मै आय गयी हती। हर समै खाट पै परै रहबे बारे पिताजी अब टहलते-टहलते गेट तक पौहच जामते। कछू देर बगीचा मै ऊ टहलते, बगीचा मै नाती-पोतन के संग खेलते, बातें करते, हंसते, बोलते औरु मुस्कुराते। कबू-कबू बेटा सूं मनपसंद खाइबे की चीजें ऊ लाइबे की कहमते। खुद खामते, बहू-बेटे औरु बच्चन कूं भी खबामते…हौलें-हौलें बिनकौ स्वास्थ्य हू अच्छौ होमन लगौ।
दादा! मेरी गेंद फेंकौ।
दरवज्जे सूं घुसते भये रफीक नें अपने छह बरस के बेटे की अवाज सुनी, तौ बौ अपने बेटा कूं डाटबे लगौ…असलम दादा बुड्ढ़े हतैं, बिनकूं ऐसे कामन कूं मत बोलौ करौ।
पापा! दादाजी रोज हमारी गेंद उठाइकें फेंकतै….असलम भोलेपन सूं बोलौ।
काह…रफीक नें आश्चर्य सूं पिताजी की तरफ देखौ?
बाप-हां बेटा, तुमने ऊपर बारे कबरा मै सुविधाएं तौ भौत दीनी हतीं। लेकिन अपनेन कौ संग नाँय हतो। तुम लोगन सूं बातें नाँय है पामती। जब सूं दालान मै खाट परी हतै, निकसते करते तुम लोगन सूं बातें है जामतें। शाम कूं असलम-रेशमा कौ संग मिल जामतै।
पिताजी कहे जा रह्ये और रफीक सोच रह्यो….बुड्ढ़ेन कूं स्यात भौतिक सुख-सुविधान सूं जादा अपनेन के संग की जरूरत होमतै….।
बड्डेन कौ सम्मान करें जे हमारी धरोहर हतैं औरु अपने बडेन कौ खयाल हर हाल में जरूर रखें…ये बौ वृक्ष हतै, जो थोरे करुए जरूर हतें, लेकिन इनके फल भौत मीठे औरु इनकी छाया कौ कोऊ मुकाबलौ नांयनें।

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