राजेश विक्रांत
मुंबई
इस आग की शुरुआत सबसे पहले भाजपा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े ने की। इसमें घी डालने का काम भाजपा उम्मीदवार ज्योति मिर्धा और अरुण गोविल ने किया। आरोप लगाने वालों में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव और असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता शामिल हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने इस पर लीपापोती की है, लेकिन मामला तो वहीं का वहीं है कि संविधान में बदलाव को लेकर मोदी सरकार के मन में क्या चल रहा है? क्या उसकी मंशा सच में संविधान में बदलाव की है? या फिर वह इस तरह का शगूफा छोड़कर वोटों की राजनीति कर रही है? आखिर क्यों भाजपा में ही इस मुद्दे पर दो फाड़ हो गए हैं? एक पक्ष संविधान में बदलाव के लिए दो तिहाई बहुमत दिलाने की भीख मांग रहा है तो दूसरा पक्ष, जिसमें खुद मोदी भी शामिल हैं, सफाई दे रहा है कि संविधान में बदलाव की बात झूठ है।
तो इस तरह की दो तरफा बात क्यों? हालांकि, सच्चाई यह है कि भाजपा चाहे कितना नाक रगड़ ले, संविधान निर्माताओं ने संविधान को इतना फूलप्रूफ बना दिया है कि इसकी मूल भावना के साथ, इसके बेसिक स्ट्रक्चर के साथ छेड़छाड़ करना नामुमकिन है। ये सब अच्छी तरह से जानते हुए भी भाजपा के शगूफे के पीछे का क्या राज है?
विवाद शुरू किया हेगड़े ने, उन्होंने कहा कि हमारे पास लोकसभा में दो तिहाई बहुमत है, पर राज्यसभा में नहीं। एनडीए को ४०० पार सीटें मिलने पर राज्यसभा में बहुमत हासिल करने में मदद मिलेगी। कुछ इसी तरह का राग अलापा भाजपा उम्मीदवार ज्योति मिर्धा व अरुण गोविल ने, फिर इस पर राजनीति गरमा गई।
हिंदुस्थान का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसके अनुच्छेद ३६८ में संविधान और इसकी प्रक्रिया में संशोधन का उल्लेख है। इसमें संसद की शक्तियों के बारे में बताया गया है। अनुच्छेद ३६८ के अनुसार, संसद को संविधान के किसी भी प्रावधान में बदलाव करने का अधिकार है। इसके लिए संसद में विशेष बहुमत के वोट की जरूरत होती है। संविधान में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत होना जरूरी है। दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के सामने अनुमति के लिए रखा जाता है। राष्ट्रपति को संविधान संशोधन पर अनुमति देनी होती है। संविधान संशोधन विधेयकों के लिए संयुक्त अधिवेशन की प्रक्रिया लागू नहीं होती है।
वैसे ऐसा भी नहीं है कि संविधान में अब तक कोई बदलाव ही नहीं किया गया है। जून १९५१ में अस्थाई संसद ने संविधान में पहला बदलाव पारित किया था। तब राज्यसभा नहीं थी। उसके बाद यह सिलसिला लगातार चलता आ रहा है। अब तक देश के संविधान में १२८ संशोधन हो चुके हैं, लेकिन संविधान की प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन किया गया है। कुल बदलावों के औसत की बात करें तो हर साल करीब दो बदलाव होते हैं।
संविधान में बदलाव को लेकर भाजपा की गिद्धदृष्टि जिस बिंदु पर होगी, वो है संविधान की मूल भावना यानी बेसिक स्ट्रक्चर। इस बारे में सन १९७३ में एक बढिया बात हुई थी कि यदि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के किसी भी भाग को बेसिक स्ट्रक्चर घोषित किया तो उस भाग में बदलाव नहीं किया जा सकता। समय के साथ सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के कई अलग- अलग हिस्सों को बेसिक स्ट्रक्चर घोषित किया। मसलन- मूलभूत अधिकार, धर्मनिरपेक्षता, न्यायिक समीक्षा आदि। और इसने संविधान को बदलने की संभावना को ही खत्म कर दिया, क्योंकि इसके कई सारे भाग बेसिक स्ट्रक्चर का अंश हो गए हैं।
हम पहले भी कह चुके हैं कि संशोधन किसी भी तरह से आसान काम नही है। लोकसभा और राज्यसभा में बहुमत आने के बाद भी सब कुछ सरल नहीं है।
२०२४ के चुनावों में अगर भाजपा की लोकसभा में ४०० सीटें आती हैं तब भी वो राज्यसभा में बहुमत से बहुत दूर है और कुछ संशोधन के मामलों में तो ५० फीसदी से ज्यादा राज्यों की मंजूरी भी चाहिए होती है यानी मोटे तौर पर दूसरी पार्टियों का सहयोग भी जरूरी होगा। यदि ये सब हो जाए तब भी सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर सुनवाई की जा सकती है और सुप्रीम कोर्ट किसी भी संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
भाजपा और मोदी को उपरोक्त बातें अच्छी तरह से पता है इसलिए दो तरह के बयान दिए जा रहे हैं। अनंत हेगड़े टाइप के लोग संविधान में संशोधन के लिए भाजपा को वोट देने की अपील कर रहे हैं तो मोदी उस पर सफाई देते फिर रहे हैं। मोदी ने बिहार के गया में एक बार फिर राग अलापा कि संविधान बदलने की बात पूरी तरह झूठ है। उन्होंने यहां तक कहा कि यदि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर दोबारा आ जाएं, तो वे भी अब देश का संविधान नहीं बदल सकते। इसी तरह की बात वे पहले भी कह चुके हैं। गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने भी नागपुर में गडकरी के पक्ष में चुनाव प्रचार करते हुए ठीक यही बात कही है। अब भाजपा नेताओं को इस तरह की बात कहने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? उन्हें बार-बार यह सफाई क्यों देनी पड़ रही है कि भाजपा पूर्ण ताकत के साथ सत्ता में आने के बाद भी संविधान में कोई परिवर्तन नहीं करेगी। दरअसल, ये सब चुनावी राजनीति का एक खेल है जिसमें ये कहने की कोशिश की जा रही है कि चित भी मेरी और पट भी मेरी।
(लेखक तीन दशक से पत्रिकारिता में सक्रिय हैं और ११ पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं।)