पी. जायसवाल मुंबई
रसिया यूक्रेन युद्ध चल ही रहा था, इसी बीच इजरायल फिलिस्तीन युद्ध शुरू हो गया। उधर, ईरान ने इजरायल पर हमला कर दिया। अभी अमेरिका इस युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से कूदा नहीं है, लेकिन उसका डॉलर मजबूत होता जा रहा है। इस हफ्ते भारत में भी रुपया अपने रिकॉर्ड ऑल टाइम के निम्न स्तर पर पहुंच गया, जिसे आप रुपया का गिरना या डॉलर का मजबूत होना कह सकते हैं। वैश्विक मुद्रा बाजार में अगर डॉलर की तुलना में किसी अन्य देश की करेंसी का मूल्य घटे तो उसे उस देश की मुद्रा का गिरना कहते हैं, जिसे हम करेंसी डेप्रिशिएशन के रूप में भी जानते हैं। वैसे हर देश के पास विदेशी मुद्रा का रिजर्व होता है, जिसके बिना पर वह इंटरनेशनल ट्रांजैक्शन करता है इसलिए इस रिजर्व के घटने-बढ़ने का असर करेंसी की कीमत पर होता है। भारत के फॉरेन रिजर्व में डॉलर और अमेरिका के फॉरेन रिजर्व में रुपए का जो भंडार होगा, अगर वह बराबर और स्थिर रहे तो रुपए की कीमत स्थिर रहेगी और ऊपर नीचे हो तो वैसे ही कीमत ऊपर-नीचे होगी। हमारे पास डॉलर घटे तो रुपया कमजोर होगा, बढ़े तो रुपया मजबूत होगा। इसे फ्लोटिंग रेट सिस्टम कहा जाता है।
अभी के गिरावट पर विशेषज्ञ मानते हैं कि इजरायल-ईरान हालिया तनाव के कारण अमेरिकी डॉलर को सपोर्ट मिल रहा है तथा इस कारण कच्चे तेल के दामों में हुई तेजी से भी डॉलर मजबूत हुआ है।
कुछ दिन पहले एक बहस भी छिड़ी हुई थी कि जब रुपया गिरा तो उसे क्या मानें, रुपया गिरा या डॉलर मजबूत हुआ? वैसे इस विमर्श के पहले यह जानना जरूरी है कि रुपए का अवमूल्यन और रुपए के कमजोर होने में क्या अंतर है। अवमूल्यन किसी अन्य मुद्रा या मुद्राओं के समूह या मुद्रा मानक के सामने किसी देश के रुपए के मूल्य का जानबूझकर नीचे की ओर किया गया समायोजन है। अवमूल्यन स्वतंत्र नहीं होता। इसका निर्णय बाजार नहीं, बल्कि किसी देश की सरकार लेती है। वहीं मुद्रा का मूल्यह्रास एक मुद्रा के मूल्य में उसकी विनिमय दर बनाम अन्य मुद्राओं के संदर्भ में गिरावट को संदर्भित करता है। मुद्रा का मूल्यह्रास चूंकि बाजार पर आधारित होता है इसलिए यह बुनियादी आर्थिक बातों, आयात निर्यात और चालू खाता, ब्याज दर के अंतर, मुद्रा स्फीति, विदेशी मुद्रा का भंडार और प्रवाह राजनीतिक अस्थिरता या निवेशकों के बीच जोखिम से बचने जैसे कारकों के कारण हो सकता है। जिन देशों की आर्थिक बुनियादी स्थिति कमजोर होती है, पुराना चालू खाता घाटा चला आ रहा होता है या मुद्रास्फीति की उच्च दर होती है, उन देशों की मुद्राओं में आम तौर पर मूल्यह्रास होता रहता है।
भारत में डॉलर रुपए के मुकाबले मजबूत ही चल रहा है। इसके विश्लेषण में जाएंगे तो पता चलेगा कि यूक्रेन युद्ध, कच्चे तेल की बढ़ी कीमतों, ग्लोबल मंदी की आहट, अमेरिका के फेडरल बैंक की ब्याज दर, विदेशी निवेशकों की निकासी और मौजूदा इजरायल-ईरान-फिलिस्तीन युद्ध ज्यादा है। देश पहले से ही उच्च मुद्रास्फीति से जूझ रहा था, अब डॉलर की मजबूती और रुपए की यह गिरावट भी परेशान कर रही है।
आर्थिक नियम के अनुसार, डॉलर की मजबूती मांग आपूर्ति पर आधारित है और जब कोई देश अपने निर्यात से अधिक आयात करता है, तो डॉलर की मांग आपूर्ति से अधिक होगी और भारत में रुपया जैसी घरेलू मुद्रा की वैल्यू डॉलर के मुकाबले कम हो जाएगी। चूंकि अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपए का मूल्य मांग और आपूर्ति कारक पर काम करता है। जिस क्षण अमेरिकी डॉलर की मांग बढ़ती है, रुपए का मूल्य अपने आप कम हो जाता है। जैसे-जैसे विदेशी मुद्रा भारत से बाहर जाता है, रुपया-डॉलर की विनिमय दर प्रभावित होती है। इस तरह का मूल्यह्रास तेल गैस और कच्चे माल की पहले से ही बढ़ी आयात कीमतों पर काफी दबाव डालता है, उच्च खुदरा मुद्रास्फीति के अलावा उच्च आयातित मुद्रास्फीति और उत्पादन लागत में भी वृद्धि करता है।
भारत जैसा विकासशील देश ज्यादातर तेल, गैस, धातु, इलेक्ट्रॉनिक्स, हैवी मशीनरी, प्लास्टिक आदि के मामले में आयात पर निर्भर रहता है और इसका भुगतान अमेरिकी डॉलर में करता है। रुपए के मूल्य में गिरावट के साथ, देश को पहले की तुलना में उसी वस्तु के लिए उसी डॉलर मूल्य के मुकाबले अधिक भुगतान करना पड़ता है। इस घटना से कच्चे माल और उत्पादन लागत में वृद्धि होगी, जिससे अंतत: ग्राहकों पर ही मार पड़ेगी। आयात से लिंक हर चीजें प्रभावित होंगी। हालांकि, कमजोर घरेलू मुद्रा निर्यात को बढ़ावा देती है, क्योंकि विदेशी खरीदार की उसी डॉलर में क्रय शक्ति बढ़ जाती है, लेकिन कमजोर वैश्विक मांग और लगातार अस्थिरता के मौजूदा परिदृश्य में इसका लाभ भारत को मिलता नहीं दिख रहा है।
सरकार इसे वैश्विक कारक बोलकर पल्ला नहीं झाड़ सकती क्यूंकि अंतत: यह ऋण भी महंगा कर देता है। यदि अपना घर मजबूत होता तो ऐसी डॉलर की मजबूती की आंधियां हमारे रुपए को प्रभावित नहीं कर पाती। यदि हम आयात को कम कर दें, यहां तक कि निर्यात ज्यादा हो जाए या दोनों आस-पास हो जाएं, पेट्रोल और गैस पर निर्भरता कम कर इलेक्ट्रिक, एथेनॉल, ग्रीन हाइड्रोजन, सौर और परमाणु ऊर्जा के प्रयोग से अपने तेल और गैस बिल को कम कर दें, आत्मनिर्भर भारत मेक इन इंडिया पर तेजी से काम करें। इसके अलावा डॉलर का आउटफ्लो कम कर इनफ्लो पर काम करें, देशों को रुपए या अन्य मजबूत मुद्राओं में सौदे सेटलमेंट की बात करें, तभी जाकर हम अमेरिकी डॉलर को विश्व बाजार में नियंत्रित कर सकते हैं, नहीं तो वैश्विक मान्य करेंसी के रूप में उसकी मांग हमेशा बनी रहेगी और बेहतर करने के बावजूद भी किसी अन्य कारण से उसकी मांग बढ़ गई तो हमारी सारी मेहनत धरी की धरी रह जाएगी और रुपया गिर जाएगा इसलिए सरकारों को डॉलर को एकाधिकार मुद्रा से बाहर लाना होगा।
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री व सामाजिक तथा राजनैतिक विश्लेषक हैं।)