डॉ. रमेश ठाकुर नई दिल्ली
धीमे मतदान के छिपे सियासी संदेश बहुत गहरे हैं, सियासतदानों के लिए कुछ ज्यादा ही? मतदाताओं की उदासीनता बताने लगी है कि वोटिंग या राजनीति में अब उनकी रुचि ज्यादा नहीं है। लोकसभा के पहले चरण में ५४३ सीटों में १०२ संसदीय क्षेत्रों में वोटिंग हुई, जिसमें २१ राज्य शामिल थे। ओवरऑल वोटिंग तकरीबन ५६ फीसदी के आसपास ही रही, जबकि आंकड़े देखें तो २०१९ में इन्हीं सीटों पर ६२ प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ था। हैरानी की बात ये है कि हिंदी पट्टी के राज्यों में वोटिंग बहुत कम हुई। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश व राजस्थान के वोटरों ने वोटिंग में दिलचस्पी इस बार नहीं दिखाई। बिहार में तो ४८ फीसदी के आस-पास ही मतदान हुआ। दरअसल, ये अंतर बहुत कुछ कहता है। मौजूदा चुनाव में भाजपा की ओर से ४०० पार का शोर मचाया जा रहा है। २०१९ के लोकसभा चुनाव में एनडीए की लहर ठीक-ठाक थीं, तब ३०३ सीटें मिली थी, लेकिन इस बार के पहले चरण ने ही बता दिया कि भाजपा का जादू फीका पड़ चुका है। कम वोटिंग के बाद भाजपा मौजूदा सियासी माहौल से वाकिफ हो गई है। चुनावी पंड़ित शुरू से कहते आए हैं कि प्रधानमंत्री बेशक ४०० पार का नारा देते हैं, लेकिन असल में उनका लक्ष्य किसी भी तरह से २७२ तक पहुंचना ही है।
बड़ा सवाल ये है, आखिरकार वोटरों का चुनाव से मोहभंग क्यों होने लगा है? इस सवाल का जवाब नेताओं के अलावा मुख्य चुनाव आयोग को भी बिना लाग-लपेट के देना चाहिए। चुनाव में मतदान का प्रतिशत बढ़े, इसके लिए आयोग पानी की तरह पैसे बहाता है। नुक्कड़ सभाएं आयोजित होती हैं, लोगों को जागरूक करने के लिए किस्म-किस्म के हथकंडे अपनाए जाते हैं। आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल होता है। बावजूद इसके वोटर चुनाव के दिन घरों से नहीं निकलते। देश का दुर्भाग्य देखिए, ऐसी स्थिति में जब नेताओं और राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व को घोर चिंता व्यक्त करनी चाहिए, लेकिन नहीं? पर सभी जानते हैं स्थिति चाहे जैसी भी क्यों न हो, वो अपनी हरकतों से बाज नहीं आएंगे। अब देखिए न, जनता चुनावों में सभी को नकारने लगी है। उस पर भी भाजपा के बड़े नेताओं के अलावा खुद प्रधानमंत्री चुनावी सभाओं में कह रहे हैं कि इंडिया गठबंधन को जनता ने पहले चरण में नकार दिया। बिहार में तेजस्वी यादव बोल रहे हैं भाजपा को जनता ने ४२० कहकर खदेड़ने का काम शुरू कर दिया है। यूपी में अखिलेश यादव ने पहले चरण को भाजपा का फलॉप शो करार दिया है। हालांकि, कुछ राजनेता अब भी ऐसे हैं, जो वाकई मौजूदा स्थिति से चिंतित हैं। उन्हें चिंता अपनी हार-जीत की नहीं, बल्कि देश में लगातार बिगड़ते राजनीतिक माहौल से है।
मतदान के दिन वोटरों द्वारा चुनाव बहिष्कार करना भी सरकारों को चिंतित नहीं करता? पहले चरण के चुनाव में कई जगहों से बहिष्कार की खबरें आईं। राजस्थान के कई बूथ खाली रहे। वहां सरकार से ठाकुरों की नाराजगी का असर भी साफ देखने को मिला। राजस्थान के अलावा ठाकुरों ने पूरे देश में चुनाव बहिष्कार का बिगुल पंâूका हुआ है, जिससे राज्य सरकारों के अलावा केंद्र सरकार भी परेशान है। चुनाव बहिष्कार की खबरें एक नहीं, कई जगहों से आईं। मध्य प्रदेश के मंडला में वोटरों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। गांव के लोगों ने मूलभूत सुविधाएं नहीं मिलने पर चुनाव का बहिष्कार कर डाला। ग्रामीणों की मांग थी ‘रोड नहीं तो वोट नहीं’? वहीं तमिलनाडु के कुड्डालोर लोकसभा सीट के अंतर्गत आनेवाले चार गांवों एस एरिपलायम, विरुथागिरिकुप्पम, पुडु विरुथागिरिकुप्पम और काची पेरिमनाथम में भी लोगों ने चुनाव में भागीदारी नहीं की। ऐसी तस्वीरें पूरे देश में देखने को मिलीं। ऐसे माहौल को देखकर भी सरकारें चुप्प हैं। समस्याओं को सुलझाने के बजाय, उल्टा बहिष्कार करनेवालों को ही दोषी ठहराने में तुले हैं। विरोध करने वालों को कोई कांग्रेसी कहता है तो कोई भाजपाई।
गौरतलब है कि पहले चरण के मतदान ने बता दिया है कि चुनावी लहर वैâसी है और किसके पक्ष में है। इससे भाजपा सबसे ज्यादा चिंतित है। उसे डर है कि कहीं उनका ४०० पार का नारा भी जुमला साबित न हो जाए। ये तय है, भाजपा अपने इस लक्ष्य को किसी भी सूरत में पार नहीं कर पाएगी। राहुल गांधी ने तो १५० पर ही समेट दिया है। पहले चरण की हवा को देखने के बाद प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी सभाओं में भाषणों के अंदाज को बदल दिया है। वे कांग्रेस पर और ज्यादा हमलावर हो गए हैं। अब वो पुराने मुद्दे उखाड़ने लगे हैं। उन्होंने १९८४ में दिल्ली सिख दंगों को फिर से हवा दी है। इसके पीछे उनकी मंशा किसान आंदोलन से खिलाफ हुए सिख किसानों को शायद मनाने की हो? क्योंकि पंजाब-हरियाणा के किसान प्रधानमंत्री से बेहद खफा हैं। मणिपुर और पश्चिम बंगाल में भारी स्तर पर वोटिंग हुई है, जो सीधे-सीधे केंद्र सरकार के खिलाफ बताई जाती है।
मणिपुर के हालात बीते कई महीनों से हिंसक हैं, जिस पर प्रधानमंत्री की चुप्पी अब भी बरकरार है इसलिए वहां की हवा भी केंद्र सरकार के खिलाफ है। वहीं पश्चिम बंगाल के हालात भी किसी से नहीं छिपे हैं? ईडी-सीबीआई की टीएमसी नेताओं पर लगातार धरपकड़ से प्रदेश की जनता खफा है। संदेशखाली जैसे मुद्दों को पुरजोर ढंग से उठाने का लाभ भी भाजपा को होता नहीं दिख रहा, वहीं महाराष्ट्र में सांसद नवनीत राणा के खुलेआम मोदी लहर के थमने की स्वीकारोक्ति ने भी भाजपा को सकते में डाल दिया है। फिलहाल, समूचे देश की सियासी हवा भाजपा के विरुद्ध पैâली हुई है, पर सबसे बड़ा सवाल अब ये है, वोटर्स का मोहभंग क्या नतीजों में सबको दंग करेगा?
(लेखक राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान, भारत सरकार के सदस्य, राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)