कहां से समेट लाती हो इतने रंग अपने नाजुक से जिस्म पर
कहीं नीली मखमली खोल पे सफेद मोती टंकवा लेती हो
तो कभी कत्थई रेशमी परों के किनारों पर बादामी कंगूरे कढ़वा लेती हो
तो कभी चटख लाल रंग पर सुनहरे बूटे उकेर लेती हो
हैरत है मुझे तेरी इस तासीर पे
कि जिधर से गुजरती हो, सबको अपना बना लेती हो
इसमें हैरत है क्या, तितली ने कहा इसमें हैरत है क्या
हर फूल से उसके रस के साथ-साथ उसका रंग मांग लाती हूं
जिधर से गुजरती हूं वहां का अंश समेट लाती हूं
इंसान तो धर्म और जाति में कितना बंट गया है
अपने कुम्बे-कबीले में कितना सिमट गया है
खुदप्रस्त, दूसरों के लिए सिर्फ नफरत है
खुद सबसे उम्दा बाकी के लिए हिकारत है
अपने में ही रहोगे तो कहां से आएंगे नए रंग
कहां से आएगी खुशी की तरंग और जीने की उमंग।
-नूरुस्सबा शायान,
नई मुंबई