अंधेरा जब शहर में गहरा हुआ
नई रौशनी ने जन्म लिया
रोशनियों की चकाचौंध ने
फिर से दिल में अंधेरा कर दिया
बाहर इतनी भीड़-भाड़ में
इंसान अकेला पड़ गया।
छोटी-छोटी बातों में
सोचें बड़ी गहरी थीं
मामूली थी चोट कहने को
जख्म गहरा कर गई
लाइलाज इस चोट का, घाव नासूर बना
रिश्तों में न वो बात रही अब
पानी सा खारा खून बना।
शिक्षक का मोल शिष्य ही जाने
पिता का जाने बेटा
माझी का मोल नाव से पूछो
वोट बैंक का मोल तो जाने है सिर्फ नेता।
परिचित हो, आलोचित रहोगे
जो घर अनजान वो अच्छे
कुछ करोगे, तो चर्चित रहोगे
शांति चाहिए?
निठले रहो! न कोई चर्चे न कोई पर्चे!
प्यारे लगते थे वो हमें, जब थे वो बस बच्चे,
निष्पाप, निर्मल, देव-स्वरूप
मन-कर्म से सच्चे।
स्वार्थ के दांत काटने को आते
अब न रहे वो बच्चे।
अब न रहे वो बच्चे।
-नैंसी कौर, नई दिल्ली