मुख्यपृष्ठस्तंभआज और अनुभव : जब जब संकट आया बालासाहेब ने बचाया!

आज और अनुभव : जब जब संकट आया बालासाहेब ने बचाया!

 

कविता श्रीवास्तव
इन दिनों चुनावी माहौल है। हर जगह चुनाव के प्रचार ने जोर पकड़ा हुआ है। ऐसे में छोटे-बड़े सभी नेता स्वयं को पाक-साफ और दूसरे को गलत बताने में कहीं से कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं, लेकिन कुछ नेताओं को गड़े हुए मुर्दे उखाड़ने की लत लग जाती है। देश के कुछ बड़े नेताओं ने महाराष्ट्र में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। ऐसे में उन्होंने शिवसेना के संस्थापक व प्रमुख रहे हिंदूहृदयसम्राट बालासाहेब ठाकरे का नाम भी कई जगह लिया। लेकिन एक बयान में एक बड़े नेता ने बालासाहेब की `नकली संतान’ जैसा अशोभनीय और अत्यंत ही आपत्तिजनक संबोधन करके सबको चौंका दिया। नेता के रूप में उनके स्तर, उनके पद और उनकी गरिमा को देखते हुए उनसे ऐसी उम्मीद किसी ने नहीं की थी। खैर, वोटों की मजबूरी में वे और उनके जैसे कई लोग जो जी में आता है कहते जाते हैं। लेकिन हम मुंबई में रहने वाले लोग केवल मुंबई ही नहीं, महाराष्ट्र की इस पावन भूमि को उनसे ज्यादा जानते, समझते हैं और यहां की संस्कृति, सभ्यता और दैनंदिन व्यवहार को अपने सिर आंखों पर उठाते हैं। मुंबई बालासाहेब ठाकरे का गढ़ रही है। वे अपने दौर में मुंबई के बेताज बादशाह रहे। वो भी बगैर कोई सरकारी पद या बिना किसी चुनाव लड़े हुए। उन्होंने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के जरिए महाराष्ट्र की सीमाओं को सुरक्षित करने में बड़ी भूमिका निभाई। उनके ही आदेश पर राम मंदिर आंदोलन में शिवसैनिकों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा। आतंकवादी गतिविधियों के कारण पाकिस्तान के खिलाड़ियों को उन्होंने मुंबई की पिच पर कभी खेलने नहीं दिया। इसके अलावा आम मुंबईवासियों के दुख-दर्द और समस्याओं के निराकरण के लिए उन्होंने हमेशा शिवसैनिकों की फौज को सक्रिय रखा। उन्हीं की राजनीतिक ताकत की बदौलत मुंबई के ही नहीं पूरे महाराष्ट्र के युवाओं और खासतौर पर मराठीभाषियों को मान-सम्मान और सरकारी विभागों में नौकरियां मिलने की प्राथमिकता शुरू हुई। उन्होंने महाराष्ट्र की संस्कृति, महाराष्ट्र की भाषा और यहां की लोक परंपराओं को मान-सम्मान देने, साहित्य को आगे बढ़ाने और राजनीतिक क्षेत्र में मराठीभाषियों को आगे बढ़ने का ढेर सारा उपक्रम चलाया। मैंने और मेरे जैसे अनेक गैर मराठीभाषियों ने भी मुंबई में रहते हुए बालासाहेब ठाकरे को हमेशा ही मुंबईवासियों का सबसे बड़ा संरक्षक समझा है। वे अपनी बात साफ-सुथरे ढंग से स्पष्ट रखते थे और गलती करने वाले को तुरंत फटकार देते थे। उनकी कोई भी बात शिवसैनिकों के लिए आदेश होती थी, जो कि आज भी है। बालासाहेब ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे या उनके परिवार व अन्य परिजन ही नहीं, बल्कि पूरी मुंबई और पूरा महाराष्ट्र बालासाहेब का परिवार है। मुंबई, महाराष्ट्र और हिंदुत्व की विचारधारा को मानने वाले हम सब उनकी वैचारिक संतान हैं। यह बालासाहेब ठाकरे जैसे कुशल राजनेता की ही सोच थी कि मुंबई में पूरे देश से आकर लोग उद्योग-धंधे, व्यापार और श्रम करने का सौभाग्य पाते हैं। बालासाहेब वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मुंबई के झोपड़ावासियों को मुफ्त फ्लैट देने की सोची। इस पर गंभीर विचार किया और सबसे पहले उन्होंने ही इसका एलान किया था, तब उनकी बातों को लोगों ने काल्पनिक भी बताया था। आज के रीडेवलपमेंट योजनाओं के तहत ढेर सारे झोपड़ावासियों को मुफ्त मकान मिल रहे हैं। यह केवल बालासाहेब ठाकरे की दूरदृष्टि का ही परिणाम है। बालासाहेब ठाकरे के साथ समाजसेवा के काम में लगे लोगों को लोकसभा अध्यक्ष, केंद्र में मंत्री, राज्य में मुख्यमंत्री, विभिन्न महापालिकाओं और नगर पंचायतों में प्रमुख पद मिले। अत्यंत ही गरीब व्यक्ति को भी नगरसेवक, विधायक, सांसद, मंत्री और मुंबई का महापौर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह सब हमने बीते दशकों में अपनी आंखों से देखा है। आज बालासाहेब ठाकरे नाम पर लोग चाहे जो सोचें, जो बोलें या जो करें यह उनकी मर्जी। लेकिन जो हकीकत में बालासाहेब ठाकरे को देख चुका है, समझ चुका है, उनके बारे में जानता है, वह कभी भी `नकली संतान’ जैसी गैरजिम्मेदाराना बातों को सुनना पसंद नहीं करेगा। यह तो बदली हुई परिस्थितियों का नतीजा है कि लोग संयमशील हैं, धैर्यवान हैं और ऐसी बातों को ज्यादा महत्व नहीं दे रहे हैं। खैर, इन बातों को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए क्योंकि जनता खुद समझदार है। राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप, दोषारोपण चलता रहता है, लेकिन विचारधाराओं, मुद्दों और समस्याओं पर बात करनी चाहिए। राजनीतिक खीझ उतारने के लिए स्तरहीनता और भाषा की मर्यादाओं तोड़ना गलत प्रथा है। आज का पढ़ा-लिखा युवा इन बातों को समझता है। आज के नागरिक हर तरह की जानकारी से वाकिफ हैं इसलिए वे ऐसी हरकतों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए अपने विवेकाधिकार का प्रयोग अवश्य करते हैं। चुनाव के वक्त कोई भी बयानबाजी करते समय इस बात का ख्याल भी नेताओं को रखना चाहिए क्योंकि गैरजिम्मेदारना बयान और ओवर कॉन्फिडेंस की राजनीति लाभ की जगह हानि भी पहुंचा सकती है। सबको असली-नकली दिखता भी है और समझ में भी आता है। किसी के बोल देने भर से कोई फर्क नहीं पड़ता।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)

अन्य समाचार