अजय भट्टाचार्य
यह इंसान की मूलभूत सुविधाओं में से सबसे मूल सुविधा है। इसके बिना आदमी खुद दुविधा में पड़ जाता है। आपके घर का साफ और स्वच्छ टॉयलेट आपकी स्वच्छ एवं स्वस्थ मनोदशा और स्वास्थ्य को इंगित करता है। हिंदी में इसे शौचालय कहा जाता है। कालांतर में खुले जंगल, झाड़ियां और गड्डे इसके लिए उपयोग में किए जाते थे। यानी ‘नीले गगन के तले’ और ‘आ लौट के आजा मेरे मीत’ जैसे तराने उस मीत के लिए ही गाए जाते थे, जो लोटा लेकर तो गया था, पर बड़ी देर के बाद भी वापस नहीं लौटा। वैसे समय बदलने के साथ घर-घर में टॉयलेट हैं और वो भी अटैच लेटबाथ के रूप में। जब कभी आप किसी परिचित का नया मकान देखने जाते हो तो वो आपको लेटबाथ बड़े गर्व और उत्साह से दिखाएगा और आपसे टॉयलेट की टाइल्स, नल, साइज और डिजाइन की तारीफ सुने बगैर वापस गेट बंद नहीं करेगा। आज से काफी साल पहले टॉयलेट प्राय: घर के बाहर बाउंड्री में हुआ करते थे, कुछ टॉयलेट सीढ़ियों के नीचे भी बना करते थे। ऊपर से तिरछे दरवाजे वाला यह स्थान केवल निवृत होने के लिए ही नहीं होता, बल्कि विचारों का मंथन और मनन केंद्र भी होता है। चाहे कोई महान कार्य के लिए योजना हो या किसी मुसीबत का हल निकालना हो, इन सबके लिए सोचने के लिए इससे अच्छी शांत जगह आपको पूरे घर में नहीं मिलेगी! बड़े-बड़े आविष्कारकों ने भी यही बैठकर महान खोजों की कल्पना की थी।
टॉयलेट मूलत: दो प्रकार के होते हैं, पाश्चात्य और देसी। अधिकतर मोबाइल और अखबार प्रेमियों की पहली पसंद पाश्चात्य शैली के टॉयलेट हैं। यह अवस्था किसी भी पार्क से कम नहीं, घोर शांति और ढेर सारा सुकून। आदमी घंटों बीत जाने पर भी बाहर नहीं आता। देसी टॉयलेट अब लुप्त होता जा रहा है, क्योंकि अब लोगों के घुटनों में वो दम नहीं रहा। यूरोपियन स्टाइल में व्यक्ति को कड़ाही वाली फीलिंग्स आती है, जबकि देसी में तवे वाली। हर व्यक्ति के लिए घर के टॉयलेट का बड़ा महत्व है, जो सुख उसे घरेलू टॉयलेट में मिलता है वो पराए में नहीं। पुराने जमाने के टॉयलेट में केवल एक बाल्टी या डिब्बा, एक बल्ब और एक किवाड़ हुआ करता था (कई जगह परदों का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें जबरन खांसना पड़ता था)। उन टॉयलेट के किवाड़ और उनकी कुंडी भी अजीब तरह की हुआ करती थी। कई बार तो मेहमानों को दरवाजे की कुंडी बंद करने की विधि बताना भी अतिथि सत्कार का अंग था, क्योंकि घर आए ज्यादातर मेहमान संकोची होते हैं। मेहमान के घर में आते ही आप उन पर चाय-पानी और नाश्ते से मेहमान नवाजी करने के लिए टूट पड़ते हैं, यह गलत है। अरे भाई, वो भी इंसान है, उसे भी प्रâेश होना पड़ता है। आप उन्हें पहले टॉयलेट वगैरह के लिए पूछें और इत्मीनान से उन्हे थोड़ी देर प्रâी छो़ड़ें, फिर आवभगत करें। आदमी अपनी भावना दबा सकता है, पर निवृत्त होने का दबाव नहीं।
इस शृंखला में सुलभ शौचालय घर से बाहर घर जैसी सुविधा, पर वहां लाइन में लगकर इंतजार करना बड़े ही संकट का काम है, जहां आपको कई लोग अत्यधिक दबाव के कारण ब्रेक डांस करते हुए दिखाई देते हैं और कुछ शांत भाव से मिराज मसलते हुए तो कुछ सिगरेट के कश खींचते हुए। जिधर देखो, उधर अपरिचित चेहरे, पर सबके चेहरों पर एक ही शंका उमड़ी दिखाई देती हैं, दीर्घशंका। ना जाने कितनी दूर से आदमी खुद को ढांढस बंधाते हुए सुलभ शौचालय को खोजते-खोजते आता है, पर वहां भीड़ खड़ी देखकर तिलमिला जाता है, क्योंकि वहां आग्रह, रुतबा, धौंस और बेईमानी नहीं चलती, वहां आपका नहीं, बल्कि आपके नंबर का महत्व है… चाहे आप कितने ही बड़े पैसेवाले क्यों ना हों! फिर दौर शुरू होता है दरवाजे खटखटाने का, उस शोर से अंदर बैठे आदमी की तंद्रा टूटती है और वो हड़बड़ाहट में नल चलाकर बाहर वाले को अपने फारिग होने का संकेत देता है। अंदर से नल से निकलती धार की आवाज सुनकर बाहर खड़े आदमी को जो खुशी मिलती है, उसे वर्णन नहीं किया जा सकता। खाना जितना जरूरी है, जाना उससे भी ज्यादा जरूरी। जिंदगी के सारे ऐशोआराम, धन-दौलत, व्यंजन-पकवान, मिठाइयां और मनोरंजन के साधन एक तरफ और हल्के होने का सुख एक तरफ। खैर, कथा सार यह है कि दस साल की यही एक उपलब्धि है उनकी, जिसके बारे में वो और उनके भक्कू बता सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं तथा व्यंग्यात्मक लेखन में महारत रखते हैं।)