मुख्यपृष्ठस्तंभव्यंग्य...रमरतिया के गोर पर ठसक...कुछ अजीब से हैं ठसकपुर वाले ठसक कुमार

व्यंग्य…रमरतिया के गोर पर ठसक…कुछ अजीब से हैं ठसकपुर वाले ठसक कुमार

कुछ अजीब से हैं ठसकपुर वाले ठसक कुमार। इनकी ठसक ऐसी कि बिन ठेले एक काम नहीं करते, लेकिन इस बार तो गजबे कर दिए हैं। अपने जीवन में पहला जोखिम उठाया है। कूद पड़े हैं जंगे मैदान में, कटोरा हाथ में लेकर। कहते फिर रहे हैं, “ चाहे जो हो सत्ता अपना ही होगी। बस थोड़ा धैर्य बनाए रखिए आप सब। आपको हमारी जरूरत है, हमें आपकी जरूरत है। सो साथ दीजिए, हम आजीवन आपका साथ देंगे।”
ठसक कुमार की बातें सुन मैं सोचने लगी। एक हम हैं जो पन्द्रह, तीस सेकेंड का रील देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। एक यह है जो हमें घंटों बैठकर अपना प्रवचन सुनाते हैं, जबकि हमारे कानों पर जूं भी नहीं रेंगता।
वे सत्ता का इतने मजबूती से वर्णन किए जा रहे हैं। सुनने वाले भी इनके हालात पर अभी रहम खा रहे हैं। कह रहे हैं, “ बेचारा भला आदमी जीत जाए कैसे भी, बड़ा गरीब है।”
ठसक कुमार अपनी जली रस्सी से पूरी जाति और समाज का पुरजोर अपने हाथ में पूरे कस कर पकड़ने की बात कर अघा रहे हैं। कह रहे-अपने हाथ में सत्ता हो तो उसका मजा ही कुछ और है। लोगों को बकरे, मच्छी खिलाने का भी ऍड्वान्स में निमंत्रण दे रखें हैं। मनपसंद डिश आपको भी खिलाएंगें, एक बार अपना पसंद बता दीजिए।
और इधर एक हम हैं, जो भूल ही गए हैं कि हमको खाने में क्या पसंद है। लेकिन स्वाद बरकरार है। वो भी ऐसा-वैसा नहीं। खाने के लिए कुछ चुनने की बारी आए तो चुपके से हम चुन लेते हैं। सेहत, समाज सबको हमेशा सराखों पर रखते हैं। सब बात का ख्याल रखते हैं।
देखा न ठसक कुमार से लोग किस तरह प्रभावित हैं, जबकि उनके जैसे लोग क्यूं बने। गर बन गए तो कल्याण नहीं मटियामेट हो जाएगा। यह भला क्या भलाई करेंगे। यह तो भाषण देने में भी दस बार अपने गमछा में मुंह पोछ्ते हैं, कई बार इनकी आवाज लड़खड़ा और गिलबिला कर अंदर ही रह जाती है। भाषण करते हैं तो औरतों की कल्याण के बारे में खूब सुनाते हैं। उस दिन कमाल हो गया अपने को धर्मात्मा बताने वाले ठसक कुमार नसे में मिले। कुछ ज्यादा चढ़ गई थी। सच कहा गया है कि आदमी नशे में सच उगल देता है। सो ठसक कुमार के मुंह से भी रमरतिया के बारे में सच बजबजा कर बाहर आ रहा था,
“अब भला बताइए। हमको रमरतिया के गोर पर गिरना पड़ा। ठीक है आठ-दस दिन इन औरतों का नखरा उठा लेता हूं, फिर मिलूंगा इससे अड्डे पर।।
हमारे कानों में गूंज रहा है। रमरतिया कह रही थी। “ये मालकिन सुनी ठसकवा ऐमकीयो ना ठेलाई त एकरा ठेला पर बैठा चूना काजर लगा भर गांव घुमाएव” मैं सुन अचंभित थी। हम रमरतिया से पूछ बैठे, ये रामरति तू कैसे जानती हैं ठसक कुमार को? रमरतिया बोल उठी ये मालकिन हम जब से ठसकवा के जानेली जबे इ मुर्धनिया के ठेला पर अंडा छिलेत रहे। इ अब ठसक कुमार हईं। अब समझ मुझे भी आ गया था ठसक कुमार का घंटों भर का प्रवचन हमें समझ क्यों नहीं आ रहा था। खुले आंख से मुझे टाइटैनिक जहाज डूबता नजर आ रहा था।
-रानी प्रियंका वल्लरी
बहादुरगढ़, हरियाणा

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