पंकज तिवारी
बखरी में गोबरी हर साल लगाई जाती थी, चमक भी हर साल उभर आती थी। पोखरी से माटी पूरे गांव वाले एक साथ ही लाया करते थे। उस समय गांव में उत्सव का माहौल होता था मगर अब जब मिरगिसिरा लग गया था, गर्मी प्रचंड रूप अख्तियार कर ली थी, सूरज जैसे आग उगल रहा था। पांव तपते तवे पर रखा हो ऐसी अनुभूति हो रही थी, में बखरी अपनी सारी खूबियां भूल सी गई थी। लोग पसीना-पसीना हो रहे थे। दोपहर में तो आग ही लग जाती थी तन-बदन में। झूलन ददा भिनसार से ही आम रखाने बगैचा में चले जाते थे, जबकि बच्चे भुट्टा नियन तप उठते थे बखरी में। कभी मन भी करता और बच्चे बगीचे में चले भी जाते तो ददा पलक झपकते ही भगा देते थे। बच्चे मन ही मन तड़प कर रह जाते थे। कच्चा आम खाने की ख्वाहिश, ख्वाहिश ही रह जाती थी। एक दिन किसी काम से ददा को मेहमानी जाना पड़ गया। बच्चों की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा, सभी दादी को मिलाकर बगीचे में ले गए। दादी को भी ददा का डर तो था ही पर नातियों और बच्चों की फरमाइश पर खुद को रोक नहीं सकीं, जो होगा देखा जाएगा सोचकर चल पड़ीं बगीचे में। नमक, लाल मिर्च कूंच कर साथ लाई थीं। बच्चे बहुत दिनों बाद आजादी पाए थे। पेड़ पर बंदरों की भांति बच्चे उछल-कूद रहे थे। कुछ आम तोड़ रहे थे तो कुछ चिल्होरपाती खेल रहे थे तो कुछ डाल और पत्तियों को तोड़ने में लगे हुए थे। दादी नुकसान होता देख कर भी अनदेखा कर दे रही थीं। बच्चों की खुशी उन्हें ज्यादा आनंदित कर रही थी। दादी नीचे बैठ गिरे हुए आम इकट्ठा किए जा रही थीं। बच्चे नीचे आ गए थे। आम कूंच कर खाया जाने लगा कि अचानक दादी को खट्टे पने की सुध हो आई। दादी बोल उठीं- ‘लड़िकउ सुखान लकड़ी लियावत जात्यऽ, पना बनइत।’ बच्चे झूम-झूम कर लकड़ी इकट्ठा करने लगे। सूखे पत्तों पर जैसे ही बच्चों के पैर पड़ते खड़खड़ाहट बगीचे भर में पैâल जाती। दादी आम भूनने लगीं, बच्चे गोलाई में घेर कर बैठ गए। कुछ बच्चे दौड़कर बाल्टी, गिलास, लोटा, काला नमक लेने घर चले गए थे और पलक झपकते ही वापिस भी आ गए थे। बच्चों के लिए घर और बगीचे के बीच की दूरी बस दो फर्लांग जितनी ही थी, जबकि वास्तविकता कुछ और थी। आज ददा के न होने से बगीचे का हाल बुरा था, पर बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं था। भुना आम आग में से निकाला गया सभी मिलकर आम छीलने लगे और दो-तीन बाल्टी पना तैयार किया गया। खबर आग की तरह गांव भर में पैâल गई, अगल-बगल से भी लोग गिलास लिए आ गए। दादी पानी मिलाती गर्इं और पना सभी को पिलाती गर्इं। अंत में दादी अपने, बहू और ददा के लिए करीब आधी बाल्टी पना लेकर घर आ गर्इं। बहू को भी बहुत दिनों बाद आज खट्टा पना पीने को मिला था। खूब छक कर पीने के बाद उसे लगा कि अम्मा और बाबू को कम पड़ेगा इसलिए पानी और मसाला मिलाकर रख दी। दादी अब ददा का इंतजार करने लगीं। करीब तीन बजे ददा घर आ गए, ददा बगीचे में होकर ही आए थे। आते ही दादी पर बरस पड़े। ‘हमरे महीना भरे के मेहनते पे पानी फेरि दिहू, तोंहंई एतनउ नाइ समझान कि हम कब से उंही बगैचा में बइठि के जिउ देत रहे, अउर जिउ की नाइ ओका जोगये रहे। तूं पलै भरे में बिनवाइ लिहू…।’ दादी लियाइके बल्टियइ धइ दिहिन। ‘लऽ पन्ना पीयऽ। बोलत अइसन हयऽ जइसे कुलि गठियाइ के टिक्ठी के साथे लेइ जाब्यऽ। जाब्यऽ तऽ अकेल्लइ। तऽ खाऽ खोब अउर लड़िकनउ के खाइ दऽ। अउर हां अबइ हमहूं नाइ पीये हई, तोंहंइन के जोहत रहे, बिना तोहरे कइसे पीइत।’ ददा उकरू बइठ बस दादी के निहारे जात रहेन अउर घुटुर-घुटुर पन्ना पीये जात रहेन। अइसन जान पड़ा कि आज ददा के अंखियइ खुलि गइ।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)