जिंदगी से हारा

जिंदगी से हार गया हूं
मारा-मारा फिरता हूं
कोई काम नहीं बनता
कोई साथ नहीं देता
राहों में कांटें बिछे हैं
रास्ता रोके खड़े हैं
कुछ समझ नहीं आता
मैं चल नहीं पाता
जीवन में आग लगी है
सुलग के बिखर गई है
जल के राख बन गई है
सारे काम में अड़चन आए
झूठ की दुनिया से ऊब गया हूं
ठहरी हुई मंजिल है
कोई मुकाम नजर नहीं आए
कोशिश बहुत करता हूं
फिर भी गिर जाता हूं
ऐसी दुनिया को दिक्कार है
जो सच को छुपाती है
झूठ पे काम करती है
इससे मैं परेशान हो गया हूं
नाकामियों से पक गया हूं
जिंदगी के खाली पन्नों से तंग आ गया हूं
जिंदगी से हार गया हूं
जीते जी मर गया हूं।
-अन्नपूर्णा कौल

नोएडा

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