कहते हैं सफल पुरुष के पीछे एक औरत का हाथ होता है, लेकिन हर सफल पुरुष के पीछे किसी औरत का हाथ हो ये जरूरी नहीं। कभी-कभार उसकी सफलता के पीछे उसके परिजनों, अपनों या फिर किसी दोस्त का भी हाथ हो सकता है। गायन और नाटकों में रुचि रखनेवाले अपने जमाने के मशहूर गीतकार ने पहली बार सफलता न मिलने के बाद दूसरी बार इंडस्ट्री में कदम रखा तो दो-चार महीनों की कड़ी मशक्कत के बाद जब उनकी हिम्मत जवाब देने लगी तो एक अजनबी जो उनका दोस्त बन चुका था, से उन्होंने दिल्ली जाने के लिए एक टिकट निकालने को कहा और…
फिल्मों में हर सिचुएशन के लिए एक से बढ़कर एक बेहतरीन गीत लिखनेवाले मशहूर शायर और गीतकार आनंद बख्शी को बचपन से ही गाने का शौक था। अक्सर रामलीला में भाग लेनेवाले आनंद बख्शी को फिल्म देखने का भी बेहद शौक था। जब कभी उनके पास फिल्म देखने के लिए पैसे नहीं होते तो स्कूल की किताबें बेचकर वो अपने इस शौक को पूरा करते। आगे चलकर गाने और फिल्मों का शौक रखनेवाले आनंद बख्शी का रुझान धीरे-धीरे लिखने की ओर हो गया। ये अलग बात है कि फौज में होने के कारण लिटरेचर की दुनिया से उनका ज्यादा ताल्लुक नहीं रहा, लेकिन शुरू से ही उन्होंने सोच लिया था कि वो फिल्मी गीत ही लिखेंगे। आनंद बख्शी ने बचपन में ही तय कर लिया था कि कभी न कभी मुंबई जाकर फिल्मों में बतौर गीतकार अपनी किस्मत जरूर आजमाऊंगा। खैर, १९५० में फौज की नौकरी छोड़कर अपनी किस्मत फिल्मों में आजमाने के लिए आनंद बख्शी ने पहली बार मुंबई में कदम रखा। मुंबई आने के बाद फिल्मों में अपनी तकदीर को आजमाने की उन्होंने काफी कोशिश की, लेकिन जब कामयाबी उन्हें कोसों दूर-दूर तक नहीं दिखाई दी तो वे हिम्मत हार गए। एक-दो महीनों की कड़ी मशक्कत के बाद उन्होंने कसम खाई कि मैं मुंबई दोबारा नहीं आऊंगा और मुंबई को अलविदा कह दिया। मुंबई छोड़ने के बाद वे फौज में दोबारा भर्ती हो गए। उनका मन कहीं कमजोर न पड़ जाए और उन्हें दोबारा मुंबई न जाना पड़े इसलिए उन्होंने विवाह कर लिया और वे पिता भी बन गए। तीन वर्ष फौज की नौकरी करने के बाद एक बार फिर उन्होंने ये सोचकर मुंबई का रुख किया कि फिल्मों में गाना गा लेंगे, गाना गाने को नहीं मिला तो गीत लिख लेंगे और गीत लिखने को नहीं मिला तो कुछ भी कर लेंगे, लेकिन मुंबई चलकर रहेंगे। अब एक बार फिर १९५६ में उन्होंने मुंबई में दोबारा कदम रखा। मुंबई आने के बाद फिर वही काम पाने की जद्दोजहद। दादर के एक गेस्ट हाउस में रहनेवाले आनंद बख्शी के लिए जब गेस्ट हाउस का किराया देना भी मुश्किल लगने लगा तो एक अजनबी शख्स जो उनका दोस्त बन गया था और मरीन लाइन्स स्टेशन पर टिकट चेकर था, से एक दिन उन्होंने कहा कि मुझे दिल्ली का टिकट दे दो मैं वापस जाना चाहता हूं। आनंद बख्शी के मुंह से ये बात सुनकर उनका वो दोस्त शॉक्ड हो गया क्योंकि वो आनंद बख्शी से इतना प्रभावित था कि उनसे हमेशा कहता कि एक दिन तुम बहुत बड़े गीतकार बनोगे। आनंद बख्शी के दिल्ली जानेवाली बात सुनकर उनका टिकट चेकर दोस्त दादर स्थित उस गेस्ट हाउस में पहुंचा जहां वो रहते थे। वहां पहुंचने के बाद सारा सामान उठाकर वो आनंद बख्शी को अपने घर बोरीवली ले आया। लगभग ६ वर्षों तक उसने आनंद बख्शी को अपने साथ रखा। उस दोस्त ने न केवल आनंद बख्शी को रहने की जगह दी, बल्कि वो उन्हें खाना खिलाने के साथ ही स्ट्रगल करने के लिए उस जमाने में दो-चार रुपए हर रोज देता। अगर वो दोस्त उनकी इस तरह मदद न करता तो संभव था कि आनंद बख्शी पहली बार की तरह एक बार फिर कसम खाकर दिल्ली के लिए कूच कर जाते। खैर, स्ट्रगल के दौरान आनंद बख्शी किसी न किसी फिल्म स्टूडियो में पहुंच जाते और उनसे जो भी टकराता उससे एक रटा-रटाया जुमला ‘मैं दिल्ली से गीतकार बनने आया हूं और मैं ये हूं, वो हूं…’ कहते, लेकिन लोग उनकी बातों को ज्यादा तवज्जो नहीं देते। इत्तफाक से भगवान दादा की एक फिल्म शुरू होनेवाली थी और वो किसी गीतकार का इंतजार कर रहे थे। उसी समय भगवान दादा के सामने आनंद बख्शी उपस्थित हो गए और उनसे बोले, ‘मैं गीत लिखता हूं।’ उनकी बात सुनकर भगवान दादा उनसे बोल उठे, ‘गीत लिखो।’ भगवान दादा का आदेश मिलते ही आनंद बख्शी फौरन गीत लिखने बैठ गए और दो-चार रोज में उन्होंने भगवान दादा के लिए चार गीत लिख दिए। उनका पहला लिखा हुआ गीत, ‘धरती तेरे लिए, तू है धरती के लिए…’ जब रिकॉर्ड हुआ तो उनकी खुशियों का ठिकाना न रहा। लेकिन इस फिल्म को ज्यादा कामयाबी न मिलने के कारण उनका स्ट्रगल जारी रहा। इसके बाद उन्हें फिल्म ‘मेहंदी लगी मेरे हाथ’ में गीत लिखने का मौका मिला। इस फिल्म से बतौर गीतकार उन्हें इंडस्ट्री में पहचान मिली, लेकिन फिल्म ‘जब जब फूल खिले’ के गीतों ‘परदेसियों से न अंखियां मिलाना…’, ‘ये समा समा है ये प्यार का…’, ‘यहां मैं अजनबी हूं…’ जैसे गीतों ने उन्हें सफलता के उस मुकाम पर पहुंचा दिया, जहां से पीछे मुड़कर उन्हें फिर कभी देखना नहीं पड़ा।