लोकमित्र गौतम
इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी अठारहवीं लोकसभा चुनाव में भाजपा को उम्मीद या उसके दावे से काफी कम मिली सीटों को लेकर उतने डिस्टर्ब नहीं दिखे, जितना डिस्टर्ब उनके दिखने की आशंका थी। हकीकत तो यह है कि पुरानी संसद में ७ जून २०२४ को एनडीए का नेता चुने के बाद दिए गए अपने भाषण में वे कांग्रेस नेता राहुल गांधी के विरुद्ध तंज कसने के मामले में अपने पुराने फॉर्म में ही दिखे। लेकिन बेफिक्री और बिंदास दिखने की सियासी कला अपनी जगह है, मगर इस बार यानी मोदी सरकार ३.० को बिलकुल बेरोक-टोक चला पाना करीबन असंभव बात होगी। इसकी ठोस वजहें हैं। एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक एलाएंस) में भाजपा के अलावा १४ सहयोगी दलों के ५३ सांसद शामिल हैं, इन सबकी मिलकर कुल २९३ सीटें हैं, लेकिन गठबंधन में चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी (टीडीपी) १६ सीटों के साथ दूसरी और नीतिश कुमार की जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) १२ सीटों के साथ तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। ये दोनों ही पार्टियां इस वक्त भाजपा के लिए बिलकुल अपरिहार्य हैं। एक साथ अगर ये दोनों एनडीए से छिटक जाएं तो मोदी की सरकार टिकना असंभव हो जाएगा।
इसलिए मोदी ३.० सरकार के लिए सबसे ज्यादा और स्थाई सिरदर्द इन दोनों को साधना ही होगा। अभी भले नीतिश लड़खड़ाते हुए सेंट्रल हॉल में मोदी जी के पैर छूने की अपनी विनम्रता रोक न पा रहे हों, लेकिन दरवाजे के दूसरी तरफ वह ऐसी ऐसी मांगें रख रहे होंगे कि मोदी ही जानते होंगे कि वह सब कितना मुश्किल है। दरअसल, नीतिश और चंद्रबाबू अपने-अपने राज्यों के मुख्यमंत्री भी तो हैं। इसलिए ये अपने-अपने राज्यों के विकास कार्यों की सारी जिम्मेदारियां आने वाले दिनों में मोदी यानी केंद्र सरकार पर ही डालते दिखेंगे। जब तक मोदी सरकार मनचाही मदद देती रहेगी तब तक चीजें आसानी से चलती रहेंगी। बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, चुनाव पूर्व भला नीतिश बाबू क्यों नहीं चाहेंगे कि वे विकास योजनाओं की झड़ी लगवाकर सुशासन के साथ विकास बाबू का तमगा भी हासिल करें? हालांकि, आगामी विधानसभा चुनावों की वजह से ही उनके फिलहाल पलटी मारने की कोई गुंजाइश भी नहीं है, लेकिन यह समीकरण मोदी ३.० सरकार को चैन की सांस भी नहीं लेने देगा। एक बात और है। अपनी वाकचातुरी से भले प्रधानमंत्री यह साबित न होने दे रहे हों कि इन लोकसभा चुनावों में भाजपा को कम सीटें मिलने से कोई फर्क न पड़ा हो, लेकिन सच्चाई यह है कि भाजपा ने जिन बड़े-बड़े वायदों के साथ चुनाव लड़ा था, उन्हें पूरा करना इस ३.० मोदी सरकार के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा।
पिछले दिनों ऐन चुनावों के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने अपने एक मीडिया इंटरव्यू में कहा था कि अगले पांच सालों में वे देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू कर देंगे, लेकिन मोदी ३.० सरकार शायद ही अब इसकी कोशिश भी करे; क्योंकि एक तो गठबंधन की सरकार, ऊपर से यूसीसी केंद्र के साथ-साथ राज्यों से भी जुड़ा विषय भी है और सबसे बड़ी बात कि अगले ६ महीनों के भीतर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन चुनावों में भाजपा ने अगर अप्रत्याशित प्रदर्शन नहीं किया तो उसकी स्थिति और ज्यादा कमजोर होनी तय है, जबकि उसके अप्रत्याशित प्रदर्शन कर सकने के कतई आसार नहीं दिख रहे। क्योंकि इन चारों प्रदेशों में राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण प्रांत महाराष्ट्र है, जहां लोकसभा चुनाव में भाजपा को करारी हार मिली है। साल २०१९ में जहां भाजपा को महाराष्ट्र में २३ सीटें मिली थीं, वहीं इस बार उसे कुल ९ सीटें मिली हैं। अगर इन लोकसभा चुनावों को विधानसभा सीटों की नजर से देखें तो भाजपा को कुल ९३ विधानसभा चुनावों में स्पष्ट हार मिली है। चूंकि विधानसभा चुनाव अगले ६ महीनों में ही होने हैं इसलिए लगता नहीं कि यहां वह कुछ अप्रत्याशित उलट-पलट कर सकती है। हरियाणा में भी उसका यही हाल रहा है। लोकसभा चुनावों में भाजपा ने यहां भी पिछले बार की अपनी १० सीटों में से ५ गवां दी हैं, जबकि झारखंड में उसने इस बार पिछले बार के मुकाबले लोकसभा की ३ सीटें खोई हैं, सिर्फ दिल्ली में ही भाजपा अपने पुराने परफोर्मेंस को बरकरार रखा है, लेकिन दिल्ली में अभी भी विधानसभा के स्तर पर आम आदमी पार्टी जितनी मजबूत है, उससे नहीं लगता कि फरवरी २०२५ में भाजपा पूरी तरह से उलटफेर कर सकती है।
ऐसे राजनीतिक माहौल में समान नागरिक संहिता जैसा बदलाव संभव नहीं होगा। फिर नीतिश सार्वजनिक तौर पर कई बार यूसीसी का विरोध कर चुके हैं। यह इसलिए भी मोदी ३.० सरकार के पसीने छुड़ा देगी क्योंकि इसके कार्यान्वन में बहुत सारी जटिलताएं हैं। मुस्लिम ही नहीं आदिवासी समुदाय भी इसे लेकर खुश नहीं है, उन्हें ऐसा लगता है कि इसके बाद वो अपने मन का जीवन नहीं जी पाएंगे। किसी हद तक पारसी भी इसे पसंद नहीं करते, जबकि वो भाजपा को चाहते हैं। हालिया परिदृश्य में भाजपा के एक और महत्वाकांक्षी एजेंडे को ठंडे बस्ते में जाना तय है वह है- ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में जिस समिति ने मार्च २०२४ में इसका मसौदा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपा था, उसमें लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने का प्रस्ताव है, जिसे करीब-करीब सभी क्षेत्रीय पार्टियां पसंद नहीं करतीं इसलिए भले ही कोविंद समिति ने इस संबंध में अपना काम पूरा कर लिया हो लेकिन एक एजेंडे के तौर पर ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को लागू कर पाना इस सरकार के बस में नहीं होगा। देशभर में चुनाव एक साथ कराने का विचार राज्यों की संवैधानिक स्वायत्तता का उल्लंघन कर सकता है, क्योंकि इससे सत्ता का केंद्रीकरण हो सकता है; जो भारत के संघीय ढांचे की आत्मा के विरुद्ध होगा। गौरतलब है कि वन नेशन, वन इलेक्शन के तहत पहले लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने की बात है फिर नगरपालिकाओं और पंचायतों तक इसे ले जाने की बात है।
मोदी ३.० सरकार के सामने एक महत्वपूर्ण मुद्दा परिसीमन का होगा। इसके तहत संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की कुल संख्या को फिर से तय किया जाना शामिल है। यह परिसीमन २०२६ में होने वाली जनगणना के बाद संभव है यह भी एक बेहद संवेदनशील मुद्दा साबित हो सकता है। हालांकि, जिस तरह से साल दर साल भाजपा का दक्षिण भारत में वोट शेयर बढ़ा है, उससे नहीं लगता कि इस पूरे परिदृश्य में उत्तर बनाम दक्षिण का कोई पेच फंसेगा, जैसे पहले कई लोगों को ऐसी आशंकाएं थीं; लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि जरा सी गलतफहमी भी हो जाने पर यह मोदी ३.० सरकार के लिए मुश्किल में डालने वाला मुद्दा होगा। आगामी १ जुलाई २०२४ से नई आपराधिक कानून व्यवस्था ‘भारतीय न्याय संहिता २०२३’ लागू होनी है। गौरतलब है कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता २०२३ और भारतीय साक्ष्य अधिनियम २०२३, इन तीनों कानूनों पर दिसंबर २०२३ में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के हस्ताक्षर हो चुके हैं। हालांकि, ऐसा कोई संकेत नहीं है कि इन कानूनों को ठंडे बस्ते में रखा जा सकता है, लेकिन पूर्व में कुछ वकीलों ने इन कानूनों के प्रभाव को लेकर चिंता जताई थी और नायडू व नीतिश की इनमें स्पष्ट सहमति नहीं रही इसलिए यह भी पेच फंसाने वाला मुद्दा हो सकता है, हालांकि अभी तक ऐसी कोई बात सामने नहीं आई। इस तरह देखें तो मोदी सरकार ३.० नंबर गेम के चलते जितनी आसानी से बन गई है, उतनी ही सहजता से चल पाना मुश्किल होगा।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)