सपने कुछ यूं मेरी पलकों में सोते हैं
जैसे मां की गोद में बच्चे हंसते रोते हैं
ये सुख-दुख से मेरी पहचान कराते हैं
पकड़ना चाहो फिर तो बहुत छकाते हैं
सदा इंद्रधनुष जैसे लहराते बलखाते हैं
कभी रात तो कभी दिन में ही आ जाते हैं
पहाड़ों के बीच नदी सा अहसास कराते हैं
सच ये सपने क्या-क्या दिन दिखलाते हैं
कभी ठंडी तो थोड़ा खिलखिलाती धूप हैं
इस कदर इशारों पर नचाते हंसते गाते हैं
बड़े रूपीले कुरूप हैं बस आजमाते हैं
और दुख का मरुस्थल सब सींच जाते हैं।
-अनुराधा सिंह