मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : धान हौ शान किसानन के हो रामा

काहें बिसरा गांव : धान हौ शान किसानन के हो रामा

पंकज तिवारी

जेठ के धूप का प्रचंड रूप देखकर एकबारगी तो धान की खेती ही भूल जाना हुआ था। ददा कई दफा कह चुके थे इस बार धान की खेती नहीं करूंगा, कारण पिछली बार धान की खेती से बहुत नुकसान हुआ था। पूरा गांव चावल को तरस गया था। ताल से भी निराशा ही हाथ लगी थी। मौसम साथ नहीं दे रहा था पर दादी दूरद्रष्टा थीं, रात को ददा को बिना बताए ही धान भिगो दी थीं। अगले दिन धान को छानकर बोरे से ढंक दी थीं, बीच-बीच में पानी भी दंवार दे रही थीं। बेहन डालने की पूरी तैयारी कर ली थीं दादी पर झूलन ददा को नहीं पता था।
दो दिन ही बीता होगा कि बादल घिरने लगे थे, उम्मीद की किरणें दादी के मन में भी पैâलने लगी थीं। सुबह मौसम को देख ददा के मन में दबी बात भी निकल ही गई- ‘बूढ़ा बहुत बड़ी गलती होइ गइ होऽ।’
‘का भऽ हो बुढ़उ?’
‘धान भेइ देइ चाहत रहा, केतना बढ़ियां मौसम बा आज, घंटा आध घंटा में पानिउ बरसे।’ दादी इसी मौके की तलाश में थीं, मगन होकर बोलने लगीं ‘हम तऽ पहिलेन भेइ दिहे रहे हो बुढ़ऊ।’ ‘का…’ चिंहुक उठे ददा। ददा की आंखों में रौशनी चमक उठी। खुशी से झूम उठे ददा। ‘बाह रे बूढ़ा, कमाल कइ दिहू तूं तऽ। घरे कऽ लक्ष्मी हऊ तूं।’ दादी मगन होइके आसमान में उड़इ लागिन। दादा दौड़कर मंगरू के घर पहुंच गए और अपना बरधा लेकर खेत में पहुंचने को बोलकर खुद अपना बरधा रहट में नाध दिए। ददा लगातार खेत भरे जा रहे थे। कुछ ही देर बाद झमाझम बारिश शुरू हो गई। चारों ओर खुशियां बरसने लगीं। गांव के लोग भीजते-भागते खेत की ओर दौड़ पड़े। कोई मेड़ संवाच रहा है तो कोई आगे की रणनीति बना रहा है, जबकि ददा सबसे आगे बेहन डालने जा रहे हैं। ददा जो कुछ देर पहले धूप में तप रहे थे, बीच-बीच में बरगद के नीचे पहुंचकर छहां ले रहे थे अब मगन हो नाच रहे हैं, दादी भी झूम रही थीं उधर मंगरू जो अपना बरधा लिए खेत में जोताई के बाद अब हेंगा से पूरे खेत को समतल करने में लग गया था, हेंगा पर ही मगन हो झूम रहा था। मिट्टी से खुशबू फूटने लगी थी और सभी के जेहन तक पैâलने लगी थी। बैल वहीं बांधकर ददा भी अब खेत में आ गए थे और मंगरू के साथ इस बारिश का मजा ले रहे थे। गांव में हूंड़ा फेरने से ही सारा काम आसान हो जाता था। मंगरू हूंड़ा पर ही आया था जब उसकी बेहन पड़ेगी तो ददा भी उसके यहां अपना बरधा लेकर जाएंगे। लोग एक-दूसरे के काम में पूरी मदद करते थे, तब गांव मतलब हजारों लोगों का एक भरा-पूरा परिवार होता था। दादी भीगे जा रही थीं और गाये जा रही थीं कि- ‘धनवा हऽ शान किसनवन के हो रामा, भात परात के शान। हो रामा भात परात के शान।’ ददा, दादी का ये रूप देखकर बस और बस दादी पर लहालोट हुए जा रहे थे, निहारे जा रहे थे दादी को। आज तो दादी ने कमाल ही कर दिया था। मंगरू भी मगन हो गाने लगा था, एक बार तो दादी शरमाई पर तुरंत ही दोनों मिलकर गाने लगे और ददा भी हां में हां मिलाते रहे। समय बीता खेत लबालब पानी से भर चुका था, तैयार हो चुका था खेत। बरसात भी बंद हो गई थी। पूरा खेत सफेद चादर से ढंका बिस्तर जान पड़ रहा था। शाम को बेहन छींटने से धान जुड़ाता है, ऐसा कहा जाता था। शाम हो आई और ददा बेहन छींटने खेत में उतर गए। बड़े ही सधे हुए कदमों से नाजुक अंदाज में बेहन छींट आए। चिड़ियों का झुंड भी टूट पड़ा पर ददा की सजगता ने उन सभी को सफल नहीं होने दिया। आज ददा और दादी इस साल की सबसे सुकून भरी नींद ले रहे थे।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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