मुख्यपृष्ठसंपादकीयमराठी और कन्नड़ भाषा अस्मिता का शंखनाद!

मराठी और कन्नड़ भाषा अस्मिता का शंखनाद!

कर्नाटक के मुख्यमंत्री श्रीमान सिद्धारमैया ने अचानक कन्नड़ भाषा और अस्मिता का उद्घोष किया है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन यह ठीक नहीं है कि मुख्यमंत्री ने आगे बढ़कर कहा कि हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कर्नाटक में कन्नड़ के अलावा कोई भी अन्य भाषा नहीं बोली जाएगी। बेंगलुरु जैसे शहर में बड़ी संख्या में ‘आईटी’ उद्योग हैं और देशभर से तकनीशियन वहां काम के लिए आते-जाते हैं। कुछ अब वहां स्थायी रूप से रहते हैं। प्रत्येक की अपनी भाषा और संस्कृति है। उनकी कामकाजी भाषा अंग्रेजी है, व्यावहारिक भाषा कन्नड़ है, लेकिन मातृभाषा स्वतंत्र है। ऐसे में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का यह आग्रह कि केवल कन्नड़ ही बोली जानी चाहिए, बकवास है। ‘कन्नड़ आदमी उदार है। इसी का फायदा उठाया जा रहा है और कन्नड़ न बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। कन्नड़ बोले बिना भी वे कर्नाटक में रह सकते हैं, ऐसा माहौल बन गया है,’ ऐसा सिद्धारमैया का कहना है। ठीक यही स्थिति मुंबई के साथ-साथ महाराष्ट्र में भी है और सिद्धारमैया ने कन्नड़ के निमित्त महाराष्ट्र के मराठी भाषियों की व्यथा को भी उजागर किया है। मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है। १०६ मराठी हुतात्माओं का बलिदान मुंबई के लिए हुआ। मुंबई में मराठी आदमी को ‘घाटी’ कहकर पुकारने और उसे नौकरी-धंधे से बाहर रखने की चिढ़ में विश्व-प्रसिद्ध व्यंग्यचित्रकार श्रीमान बाल केशव ठाकरे ने शिवसेना नामक ज्वलंत संगठन की चिंगारी जलाई। जब शिवसेना मराठी भाषा, मराठी गौरव, मराठी लोगों के न्याय अधिकारों की भाषा बोलने लगी और उसके लिए लड़ने लगी तब ‘यह तो प्रांतीयवाद है और यह राष्ट्रीय एकता को खंडित कर देगा’, ऐसा पेट दर्द कई लोगों को होने लगा और कर्नाटक के नेता इसमें सबसे आगे थे। शिवसेना की भूमिका स्पष्ट है। भाषा के आधार पर प्रांतीय राज्यों का गठन होने पर प्रत्येक राज्य को अपनी भाषा, संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार है। मराठी भाषा और माटी में छत्रपति शिवाजी महाराज और डॉ. आंबेडकर का निर्माण हुआ। औरंगजेब की भाषा गुजराती थी। क्योंकि उनका जन्म गुजरात में हुआ था। इसलिए हर कोई अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करता है और उसके अनुसार कार्य करने का प्रयास करता है। मुंबई की लड़ाई मराठी अस्मिता और मराठी लोगों के उचित अधिकारों की लड़ाई थी, जो आज भी खत्म नहीं हुई है। मुंबई और आस-पास के इलाकों में आए लोगों ने न केवल मराठी भाषा और संस्कृति को नष्ट किया, बल्कि मराठी लोगों के अधिकारों को भी मार डाला। मिल का मजदूर सौ फीसदी मराठी था। आज उनकी मिलें नहीं रहीं। वहां टॉवर्स खड़े हैं और इन्हीं टॉवरों ने मराठी भाषा और मराठी लोगों पर अपना दावा जताया है। सिद्धारमैया की भाषा में कहें तो मराठी लोग उदार हैं, इसी का फायदा ये बाहर के ‘टॉवर्स’ वाले लोग उठा रहे हैं। इन अधिकांश ‘टॉवर्स’ की मंडलियों ने जो मतदान किया वो महाराष्ट्र के विरोध में है, ये स्पष्ट नजर आता है। तो अब इन लोगों का क्या करें? इन सभी अमीर-धनाढ्यों का मराठी संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं है। उनका संबंध सिर्फ मुंबई में पैसा कमाने से है और इसीलिए वे मुंबई-महाराष्ट्र में आए। उन्हें न तो महाराष्ट्र पर गर्व है और न ही मराठी भाषा से लगाव है। अर्थात सिद्धारमैया कन्नड़ को लेकर जो कह रहे हैं, बिल्कुल वही महाराष्ट्र में मराठी भाषा और संस्कृति के साथ हो रहा है। जब महाराष्ट्र के उद्योग-धंधों को खत्म करके गुजरात ले जाया जा रहा था, तब इनमें से किसी टॉवरवाले के पेट में वेदना का दर्द उठा होगा तो कसम है। सिद्धारमैया कहते हैं, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में हर काम के लिए केवल उनकी मातृभाषा का ही इस्तेमाल होता है। इसलिए कर्नाटक में भी सभी को कन्नड़ का ही उपयोग करना चाहिए। कर्नाटक में केवल कन्नड़ भाषा में बात करने की शपथ लेंगे, ऐसा सिद्धारमैया ने जोर देकर कहा है। क्या महाराष्ट्र के असंवैधानिक मुख्यमंत्री में मराठी भाषा के बारे में बोलने का साहस है? प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री शाह का वर्तमान कामकाज ‘गुजरातियों के लिए सब कुछ’ जैसा ही है। गुजरात और गुजरातियों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाएं। देशभर के सभी वित्तीय लाभ, ठेके गुजरातियों को ही दें। जिससे वाराणसी और अयोध्या भी अछूते नहीं रहे। मोदी खुद ऐसे व्यवहार कर रहे हैं, जैसे वह देश के नहीं बल्कि गुजरात के प्रधानमंत्री हैं। अगर गुजरात मजबूत हुआ तभी देश मजबूत होगा और इसके लिए उन्होंने अपने गुजराती उद्योगपति मित्रों को देश को लूटने की इजाजत दे दी। ये अस्मिता नहीं बल्कि लूटमार है। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के शासनकाल के दौरान ‘मराठी सख्ती’ का कानून बनाया गया। भव्य मराठी भाषा भवन निर्माण की आधारशिला रखी गई। मराठी स्कूलों को संरक्षण दिया गया। मराठी लोगों को रोजगार में प्राथमिकता मिले, इसके लिए कानून और संघर्ष भी हुए, लेकिन मौजूदा मिंधे सरकार मराठी अस्मिता को लेकर समझौतावादी नीति ही अपना रही है। मोदी-शाह ने सीधे तौर पर मराठी लोगों पर ही हमला किया है। इस औरंगजेबी हमले को मराठी लोगों की एकता से कल के चुनाव में सीमा पर ही रोक दिया गया, लेकिन मिंधे और उनके मित्र महामंडल ‘मनसे’ मराठी के दुश्मनों के चरणों में बैठे हैं। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहना होगा। सिद्धारमैया ने कन्नड़ भाषा का आह्वान किया तो किसी को नाराज होने की कोई वजह नहीं है। भारत के संविधान ने प्रत्येक नागरिक को अपनी मातृभाषा के संरक्षण और विकास का अधिकार दिया है। उसी संवैधानिक अधिकार के साथ बेलगाव सहित सीमावर्ती इलाकों के मराठी लोग अपनी मातृभाषा यानी मायमराठी की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। श्रीमान सिद्धारमैया को कन्नड़ के सिल-बट्टे पर उन्हें इतना भी नहीं पीसना चाहिए। बाकी सिद्धारमैया या कन्नड़ मुल्क से हमारा कोई झगड़ा नहीं है।

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