अजय भट्टाचार्य
२०१४ में नरेंद्र मोदी के केंद्र जाने के बाद गुजरात में प्रधानमंत्री की `आंख और कान’ बने रहे `सुपर सीएम’ के रूप में मशहूर नौकरशाह ७२ वर्षीय कुनियिल वैâलाशनाथन उर्फ केके ने बीते सप्ताहांत गुजरात की नौकरशाही से इस्तीफा दे दिया और मुख्यमंत्री के मुख्य प्रधान सचिव के रूप में अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद `स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति’ का विकल्प चुना, तो यह एक युग का अंत था। वैâलाशनाथन के जाने का असर गुजरात की नौकरशाही-खासकर आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के कामकाज पर जल्द ही महसूस होने की संभावना है। यह २००१ के अंत में था, जब मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में पदभार संभाला था, तब वैâलाशनाथन उनकी नजर में आ गए। २००६ तक वैâलाशनाथन को मुख्यमंत्री कार्यालय में नियुक्त कर दिया गया था। २०१३ में जब वे सीएमओ में अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए, तो राज्य में मोदी सरकार ने वैâलाशनाथन के लिए मुख्यमंत्री के मुख्य प्रधान सचिव का पद सृजित किया। पिछले ११ वर्षों में उन्हें नियमित अंतराल पर सेवा विस्तार मिलता रहा और उन्हें मोदी की पसंदीदा परियोजनाओं जैसे गिफ्ट सिटी, नर्मदा और अब गांधी आश्रम पुनर्विकास का प्रभार दिया गया। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद गुजरात में उनके बाद तीन मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल, विजय रूपानी और भूपेंद्र पटेल आए, लेकिन वैâलाशनाथन के कद में कोई कमी नहीं आई। वैâलाशनाथन को मुख्य सचिव और कई बार मुख्यमंत्री (जिन्होंने मोदी की जगह ली) से भी अधिक शक्तिशाली माना जाता था। आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के तबादलों और पोस्टिंग में वे ही पैâसले लेते थे। उनके विचार उन मामलों पर भी मांगे जाते थे, जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आते थे। केके के बारे में महत्वपूर्ण बात यह थी कि वे खुद को स्थिति के अनुसार ढाल लेते थे, मौजूदा मुख्य सचिव के अनुसार अपना दृष्टिकोण बदलते थे। यदि मुख्य सचिव बहुत सक्रिय नहीं होते थे, तो वे पहल करना शुरू कर देते थे और चीजों को आगे बढ़ाते थे, लेकिन यदि मुख्य सचिव सक्रिय होते थे, तो केके पीछे हट जाते थे। एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने स्वीकार किया कि वैâलाशनाथन के पास जो प्रभाव था, उसका मतलब था कि वे अक्सर शक्तिशाली लोगों के पद पर आसीन होते थे।
झारखंड सबक का असर
झारखंड लोकसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए सबक हैं। पार्टी १४ में से १३ सीटों पर चुनाव ल़ड़ी, लेकिन ८ सीटें ही जीत पाई। एक सीट सहयोगी आजसू ने जीती, वहीं `इंडिया’ गठबंधन ने ५ सीटों पर जीत दर्ज की। इनमें ३ पर झामुमो और २ सीटें कांग्रेस जीतने में सफल रही। ऐसे में प्रदेश में राजनीतिक परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं। इन ५ वर्षों में पार्टी का नेतृत्व दो पूर्व मुख्यमंत्रियों बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा के हाथ में रहा। इस लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मरांडी को आदिवासी चेहरे के तौर पर पेश किया, जबकि केंद्र में अर्जुन मुंडा को कृषि जैसा मंत्रालय दिया। लेकिन दोनों पूर्व मुख्यमंत्री आदिवासियों के लिए रिजर्व ५ में से एक भी सीट पर जीत नहीं दिला सके। लिहाजा, आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी किसी स्थानीय चेहरे पर नहीं, बल्कि पार्टी के मुख्य प्रचारक नरेंद्र मोदी के चेहरे पर मैदान में उतरेगी। अगर बहुमत मिला तो पार्टी राजस्थान, मध्य प्रदेश और ओडिशा की तरह किसी कम लोकप्रिय चेहरे को यह जिम्मेदारी सौंप सकती है। खूंटी से डेढ़ लाख मतों से हारे अर्जुन मुंडा और बाबूलाल मरांडी चुनाव लड़ेंगे, ये भी तय है, क्योंकि पार्टी आदिवासी नेताओं को दरकिनार नहीं कर सकती। मुख्यमंत्री के चेहरे की बजाय पार्टी, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा की रणनीति पर काम कर इस बार सत्ता में वापसी करना चाहेगी। लोकसभा चुनाव में हार के बाद राज्य अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी की रणनीति भी सवालों के घेरे में है। दुमका से सीता सोरेन ने हार के बाद पार्टी के कई नेताओं पर भीतरघात करने का आरोप लगाया। प्रदेश में ५ सीटों पर हार के लिए पैराशूट उम्मीदवार उतरना महंगा पड़ा, क्योंकि ऐसे उम्मीदवारों को पार्टी उतना समर्थन नहीं देती, जितना पार्टी के नेताओं को देती है। दुमका के अलावा लोहारदग्गा, सिंहभूम, खूंटी समेत कई लोकसभा क्षेत्रों में भीतरघात की शिकायतें सामने आई हैं। एक खबर यह भी है कि पार्टी इस बार रघुवर दास को फिर से विधानसभा चुनाव में उतार सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं तथा व्यंग्यात्मक लेखन में महारत रखते हैं।)