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सम-सामयिक : बाढ़ विभीषिका में क्यों बह जाते हैं  …‘आपदा प्रबंधन’ के प्रयास?

डॉ. रमेश ठाकुर
नई दिल्ली

बाढ़-बारिश के रौद्र रूप ने मानव-जीवन को डरा दिया है। हिंदुस्थान के विभिन्न हिस्सों में व्याप्त प्रलयकारी बाढ़ से अब तक अनुमानित ६०० करोड़ रुपए के नुकसान का आकलन हुआ है, बढ़ने की और संभावनाएं हैं। आर्थिक नुकसान के अलावा जान-माल की भी क्षति लगातार हो रही है। करीब ३०० से अधिक मौतें हो चुकी हैं। बाढ़ की विभीषिका से निपटने के लिए समाज आगे आया हुआ है, लेकिन बाढ़ से मचे हाहाकार को देखकर ‘भारतीय आपदा प्रबंधन’ ने पूरी तरह से पत्ते डाले हुए हैं। उनकी कोशिशें और राहत-बचाव के प्रयास घटना स्थलों पर हांफ रहे हैं। भयंकर बाढ़ ने चारों ओर कहर बरपाया हुआ है। जमीन का भूभाग पानी-पानी हुआ पड़ा है। आपदा प्रबंधन से तो कहीं अच्छा कार्य इस वक्त स्थानीय प्रशासन जैसे एसडीएम, तहसीलदार, जिला कर्मचारियों के अलावा ग्राम प्रधान और राजनैतिक कार्यकर्ता करते दिख रहे हैं। सभी ने बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में मोर्चा संभाला हुआ है। उनसे जो कुछ भी बन पड़ रहा है, ईमानदारी से कर रहे हैं। ऐसे में आपदा प्रबंधन अमला सफेद हाथी साबित हो रहा है।
आपदा प्रबंधन की हमेशा की तरह इस बार भी मानसून की पहली बारिश ने पोल खोली है, जबकि इस सीजन का वक्त अभी शेष है। अभी आगे इससे भी ज्यादा बारिश होने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। लेकिन इतनी ही बारिश में पूरे हिंदुस्थान को जलमग्न कर दिया है। आपदा प्रबंधन के पास तैयारियों का लंबा वक्त होता है। ईमानदारी से अपना दायित्व निभाएं तो ऐसी स्थितियों से काफी हद तक निपटा जा सके। विभागीय अधिकारी-कर्मचारी तैयारियां कितनी करते हैं और कितनी गंभीरता से करते हैं? उसकी तस्वीर बाढ़ आने पर दिखती है। भारतीय आपदा प्रबंधन को अच्छे से ज्ञात होता है कि हिंदुस्थान अपनी अनूठी भू-जलवायु स्थितियों के कारण प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील है। बाढ़, सूखा, चक्रवात, भूकंप और भूस्खलन की बार-बार होनेवाली घटनाएं स्वाभाविक होती हैं। लगभग ६० फीसदी भूभाग विभिन्न तीव्रता के भूकंपों के लिए है, ४० मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र बाढ़ के लिए है, ८ फीसदी चक्रवातों के लिए और ६८ प्रतिशत क्षेत्र सूखे के लिए अति संवेदनशील माना जाता है। ऐसे में इन जगहों पर पूर्व में की जाने वाली तैयारियां विकट समस्याओं में विफल क्यों होती हैं? इसका जवाब आपदा प्रबंधन को ऐसे वक्त देना चाहिए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि मानसून के दो-ढाई महीने ऐसे होते हैं, जो आपदा प्रबंधन के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होते हैं। मानसून से पूर्व करीब १० महीनों का पर्याप्त समय उनके पास तैयारियों का होता है। चाहे केंद्र सरकार हो या राज्यों की हुकूमतें, प्रबंधन विभाग को धन से लेकर जरूरत की तमाम वस्तुएं मुहैया करवाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती, ताकि बाढ़ आपदा से उनका आपदा प्रबंधन विंग अच्छे से निपट सके, पर अफसोस विभाग उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाता। मानसून की पहली ही बारिश में उनके तमाम कागजी प्रयासों की पोल खुल जाती है। स्थिति बिगड़ने पर बचाव-राहत कार्य में तो उनके लोग जुटते हैं, पर सिंगल व्यक्ति की भी रक्षा अपनी तकनीकों के जरिए नहीं कर पाते। आपदा प्रबंधन को सरकारें मुंह मांगा बजट आवंटित करती हैं। इसके बावजूद भी बाढ़ से प्रभावित लोगों को बचाने के लिए सेना, एयरफोर्स, सीआरपीएफ की टुकड़ियां लगानी पड़ती हैं। सरकार के अन्य विभागों के कर्मचारियों को मोर्चा संभालना पड़ता है।
आपदा प्रबधंन को रिफॉर्म करने की दरकार है। विभाग को आधुनिक करके नई तकनीकों को अपनाना होगा। करीब ३३ लाख वर्ग किमी क्षेत्र के भौगोलिक विस्तार एवं १४० करोड़ से ज्यादा आबादी वाले भारत में शायद ही इस वक्त कोई ऐसा भाग बचा हो, जहां बाढ़ या बारिश से आपदा की स्थिति न उत्पन्न हुई हो। नेपाल ने बारिश का अपना सारा पानी भारत की ओर मोड़ दिया है, जिससे भारत का तराई क्षेत्र और आसपास सटे जिले और गांव-कस्बे पानी से लबालब भरे हैं। उनसे निपटना जल आपदा प्रबंधन के बस का नहीं? पूर्वी बिहार में बहनेवाली कोसी नदी उफान पर है। दर्जनभर जिलों का सड़क मार्ग पूरी तरह से कट गया है। बाढ़ पीड़ित लोग बमुश्किल सुरक्षित जगहों पर पनाह ले पा रहे हैं। तराई क्षेत्र के जिले पीलीभीत, लखीमपुर, बलरामपुर, बहराइच आदि जिलों के लोग जहां-तहां भाग रहे हैं। पीलीभीत में अभी हाल में बिछाया गया नया रेल ट्रैक भी पानी से बह गया। इस बार मानसून अच्छा है, तभी तकरीबन समूचे हिंदुस्थान में इस वक्त मूसलाधार वर्षा हो रही है, जिससे प्रलयकारी बाढ़ आई है और इंसानी जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है।
बाढ़ से निपटने के लिए आपदा प्रबंधन की कमजोर तैयारियां निश्चित रूप से सोचने पर मजबूर करती हैं। असम, उत्तराखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, हिमाचल, पश्चिम बंगाल, बिहार जैसे ९ राज्य ऐसे हैं, जो ज्यादा प्रभावित हैं। इन समस्याओं से निपटने की पहली जिम्मेदारी आपदा प्रबंधन पर होती है, लेकिन ऐसे में वहां सिर्फ कमियां ही दिख रही हैं। उनमें आपसी समन्वय में कमी, अपर्याप्त फंडिंग का रोना, सीमित सार्वजनिक भागीदारी और अपर्याप्त संसाधनों की दुहाई दे रहे हैं। आपदाओं से होनेवाला नुकसान अथाह है और प्रभावित क्षेत्र की मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति को भी प्रभावित करता है। आपदाएं ऐसी घटनाएं हैं जो बहुत अधिक विनाश और मानवीय पीड़ा पहुंचाती हैं, पर ये आधुनिक विकसित भारत है, जिसमें हम चांद पर भी पहुंच चुके हैं। पर अफसोस इस बात का है कि बाढ़ जैसी समस्याओं से निपटने में हम अभी भी असक्षम हैं। केंद्रीय हुकूमत को गंभीरता से इस मसले पर मनन-मंथन करना होगा, ताकि भविष्य में ऐसी समस्याओं से सफल मुकाबला किया जा सके।
(लेखक राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान, भारत सरकार के सदस्य, राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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