“कुछ टूटा है आज”

आनंद शर्मा

कुछ टूटा है आज
कुछ ख़त्म हुआ है
उम्मीदों का नन्हा परिंदा
चुपके से कहीं
दफ़न हुआ है
कुछ टूटा है आज…

लफ़्ज़ों का अंत हुआ
विचार भी अब मौन है
एक प्रश्न ज़िंदा है
क्यों है तू ?
और कौन है ?
विवेक का अभेद्य दुर्ग
संवेग की अग्नि में
भस्म हुआ है।
कुछ टूटा है आज …

तमस है उत्कर्ष पर
तर्क पड़ा फ़र्श पर
क्रोधाग्नि के भंवर में
अज्ञानता है अर्श पर
मौलिकता नदारद है
ये जीवन छद्म हुआ है
कुछ टूटा है आज …

अंत ही आरंभ है
नवयुग के आग़ाज़ का
कर्णभेदी रंभ है
कुछ टूटा है आज
न ही कुछ
ख़त्म हुआ है
फिर पतझड़ बाद
नव कोपलों का
जन्म हुआ है।
कुछ न टूटा है आज
न ही कुछ
ख़त्म हुआ है।

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