मुख्यपृष्ठस्तंभआज और अनुभव : आपदा को हरा देती है परोपकार की भावना

आज और अनुभव : आपदा को हरा देती है परोपकार की भावना

कविता श्रीवास्तव

यह जुलाई का महीना है और स्वाभाविक तौर पर मुंबई में बरसात के दिन हैं। बीता पूरा हफ्ता रिमझिम-रिमझिम फुहारों भरा रहा। दरअसल, बीते रविवार की दोपहर को ही मूसलाधार बरसात शुरू हुई थी। परिणामस्वरूप मुंबई की जीवनरेखा समझी जाने वाली लोकल ट्रेनें गड़बड़ा गई थीं। अन्य राज्यों की गाड़ियां भी प्रभावित रहीं। सोमवार को भी यातायात प्रभावित रहा। हालांकि, यह मुंबई की खूबसूरती है कि यहां चाहे जितनी भी बरसात हो, उसके थमते ही कुछ घंटे में ही परिस्थितियां सामान्य होने लगती हैं। लेकिन मुंबईवासी आज भी २६ जनवरी २००५ को हुई मूसलाधार बरसात की यादें नहीं भूल पाते हैं। मुंबई के इतिहास में अब तक की सबसे भारी बरसात और भयानक बरसात २६ जुलाई २००५ को हुई थी, उस बारिश ने लगभग १,००० लोगों की जान ले ली। जान-माल की भारी क्षति हुई। कारोबार का भारी नुकसान हुआ। मुंबई की उस बारिश के अनेक किस्से लोगों को आज भी याद होंगे। उस भयानक बारिश की चर्चा न केवल मुंबई या महाराष्ट्र में रही, बल्कि पूरे भारत और सारी दुनिया ने बारिश से मुंबई के बुरे हाल को उस वक्त देखा था। मैं उस दिन दादर में थी और बारिश धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही थी। जलस्तर जमीन से नीचे उठता ही जा रहा था। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि वाहनें-ट्रेनें सब बंद हो जाएंगी। हालांकि, इसकी आशंका थी इसीलिए मैंने दादर से तेज लोकल पकड़ी। वह बांद्रा तक बराबर आई। उसके बाद धीमी होती गई। पटरियों पर पानी भरा था। बारिश सतत जारी थी। ट्रेन धीमी होते-होते सांताक्रुज तक रुक-रुक कर चलती रही। वहां से अंधेरी आने में उसे डेढ़ घंटे लग गए और अंधेरी के बाद उसके आगे बढ़ने की उम्मीद ही नहीं रही। नीचे पटरियां डूबने लगी थीं। पानी का स्तर ऊपर आने लगा था। लोग कूद-कूदकर जाने लगे थे। मैं आखिरी व्यक्ति थी, जो अंतत: मजबूरन अपने साथी के साथ कूदकर बाहर आई। घुटने तक पानी में रेल पटरियों पर चलते हुए बाहर सड़क की दिशा में बढ़ी। वहां कतारबद्ध लोग सबका हाथ पकड़ कर संभालकर बाहर निकाल रहे थे। ये मुंबईवासियों की नेकपरस्ती और उनके अपने जज्बे हैं। किसी तरह बाहर आई तो देखा कि वहां और भी बुरी हालत थी। सड़कें पूरी तरह डूबी हुई थीं। होटल, दुकानें, घर, इमारतें पानी से लबालब आधी भरी हुई थीं। लोग सड़कों के किनारे घुटनों तक डूबे हुए बेहाल थे। किसी तरह चलते-चलते मैं हाईवे रोड पर आई, लेकिन कमर तक डूबे पानी में चलना बड़ा मुश्किल हो रहा था। हालांकि, सड़क के इर्द-गिर्द खड़े लोग हाईवे की ओर अपने ठिकाने के लिए आगे बढ़ रहे सभी लोगों को ढांढस बंधा रहे थे और संभलकर जाने की सलाह दे रहे थे। कुछ लोग बीच में पानी और चाय भी पूछ रहे थे। मुझे लगभग ढाई घंटे इसी तरह चलना पड़ा। हर कदम पर यह डर लगा रहता था कि कोई गड्ढा न हो और मैं धड़ाम से गिर न जाऊं। ऊपर वाले का शुक्र है कि मैं किसी तरह एक घंटे बाद हाईवे पर पहुंची, फिर हाईवे से चलते हुए मैं मालाड की ओर रवाना हुई, तब तक मैं कितनी देर तक बारिश में नहाती ही रही इसका कोई अंदाजा ही नहीं। मैं ही नहीं, मेरे जैसे हजारों लोग इसी तरह चले जा रहे थे। रोजाना वाहनों से और ट्रेनों से शहर की ओर से बोरीवली, भायंदर, विरार की तरफ जाने वाले हजारों लोगों का कारवां उस दिन हाईवे पर पैदल ही आगे बढ़ रहा था। ऐसा लग रहा था, मानो कोई बहुत बड़ा जुलूस चल रहा हो। भीषण बरसात में भीगते हुए इस तरह अपनी जान बचाकर आगे बढ़ रहे लोगों का यह कारवां अद्भुत था। ऐसे में अनेक समाजसेवी लोगों को संभलकर जाने, कुछ देर ठहरने, रातभर रुकने साथ ही उन्हें चाय, बिस्किट, पानी पूछने का नेक काम कर रहे थे। उसी भीड़ के जोश में मैं किसी तरह मालाड पहुंची और वहां गर्म चाय किसी ने पिलाई, तब जाकर दिल और शरीर को राहत महसूस हुई। मुझे दादर से अपने घर पहुंचने में उस दिन ६:३० घंटे लग गए और घर वाले मेरा हाल जानने के लिए बेहाल थे। घर पहुंचते ही सब ने राहत की सांस ली, लेकिन सड़कों पर मैंने लोगों को बहुत ही परेशान हालात में अपने घर की ओर पैदल जाते देखा। उसके बाद टीवी पर जो नजारा देखा तो दिल दहल उठा। कई लोग गाड़ी में ़फंसकर मर गए। कई इमारतें ढह गर्इं। कई लोग घर में ही डूब कर मर गए। जो जहां था, वहीं फंसा रहा, लेकिन ऐसे वक्त भी ढेर सारे लोगों ने एक-दूसरे को मदद पहुंचाई। लोगों ने एक-दूसरे को खाना-पानी पहुंचाया। अपने घरों में रहने का ठिकाना दिया। दवाइयों का इंतजाम किया। दो दिनों बाद जब बरसात थमीं तो भारी नुकसान का पूरा ब्योरा देखकर सारी दुनिया हैरान रह गई। बारिश ने ऐसी तबाही मुंबई में मचाई थी। आज असम, उत्तराखंड, सहित उत्तर भारत बाढ़ से परेशान है। चीन में भी बाढ़ की स्थिति है। कई देशों में बारिश ने कहर मचा रखा है। पहाड़, पुल सड़कें, इमारतें ढह रही हैं। ऐसे में लोगों की क्या हालत होगी यह सोचकर दिल कराह उठता है, लेकिन प्रकृति के विनाशों के बाद भी मनुष्य ही मनुष्य की मदद के लिए हर जगह खड़ा होता है क्योंकि मनुष्य की संवेदनाएं जीवित हैं। प्रकृति सबसे शक्तिशाली है, लेकिन मनुष्य की संवेदनाएं उसका परोपकार का भाव और उसकी मानवता से बढ़कर कुछ नहीं है।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)

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