सांझ समय

सांझ को बैठे सब बातें सांझा करें
मन की बातें इधर-उधर करें
जिया तड़प जाए आंख नम हो जाए
संध्या आ जाए सब भूल जाए
सांझ को नदी किनारे बैठे हैं
लगी उसमें कोई धुन है
अपनी ही सोच में गुम है
शाम होते ही दूरियां नजदीकियां लगती
खुशी दबे पांव आती
फिर चुपके से चली जाती
शाम की तन्हाई डसती बेबस करती
मन के बाग के झूलों से अपने को झुलाया है
इंतजार खत्म नहीं होता
फिर भी मन को मनाया है
ढलता सूरज अपनी दास्तां सुनाए
अगले दिन चढ़ने का अफसाना बनाए
सिंदूरी शाम मुस्कुराती जाए
अपनी राह की ओर मुड़ती जाए
सूरज अपनी लालिमा बिखेरता जाए
सबके मन को लुबाएं
कोई अराधना में लीन हो जाएं
दिन भर पंक्षी झुंड में टहलते
सांझ होते ही लौट आते
दिन को सारे काम पे जाते
सायंकाल होते ही आराम फरमाते।

-अन्नपूर्णा कौल, नोएडा

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