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राज की बात : मुंबई मोदी जी की रूस यात्रा से उपजे सवाल

द्विजेंद्र तिवारी

पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी युद्ध के बीच रूस हो आए और राष्ट्रपति पुतिन से उनके गले मिलने पर अंतरराष्ट्रीय बवाल मच गया। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने ‘ब्लडी क्रिमिनल’ (पुतिन) से गले मिलने पर गहरी निराशा जताई। लेकिन भारत में रक्षा और विदेश मामलों के जानकार उनके दौरे की टाइमिंग को लेकर उलझे हुए हैं। तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते ही मोदी जी ने रूस का ही दौरा क्यों किया? खासकर, तब जब यूक्रेन से दो वर्ष पहले शुरू हुए युद्ध के बाद से चीन और तुर्किए के राष्ट्रपति के अलावा वहां कोई गया ही नहीं। अमेरिका और यूरोप की नजर में अब पुतिन खलनायक हैं। आर्थिक प्रतिबंध लगे हुए हैं। ऐसे में मोदी जी की मास्को यात्रा ने रहस्य के बादल खड़े कर दिए हैं, जिनका जवाब किसी के पास नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि रूस हमारा पुराना साथी रहा है। चीन से १९६२ के युद्ध में रूस तटस्थ रहा और हमारा साथ नहीं दिया। लेकिन १९७१ में पाकिस्तान के साथ युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद के लिए अपना सातवां बेड़ा भेजा था। उस समय सोवियत संघ दीवार बनकर खड़ा हो गया।
आजादी के बाद और शीतयुद्ध के दौर से भारत हमेशा ही रूस को अपना दोस्त मानता रहा है। लेकिन अब शीत युद्ध काल खत्म होने के बाद परिस्थितियां बदल चुकी हैं। अब कहा जाने लगा है कि रूस चीन का जूनियर पार्टनर है। इसका कारण है यूक्रेन से युद्ध। अपने सशस्त्र बलों की सभी प्रकार की तोपों और टैंक गोला-बारूद की निरंतर मांग को पूरा करने के लिए रूस को चीन पर काफी निर्भर रहने की नौबत आ गई है। रूस की सेना का युद्ध खर्च लगभग २५० करोड़ रुपए प्रतिदिन बताया जाता है।
दो वर्ष से चल रहे युद्ध में भारी मात्रा में गोला-बारूद और हथियार की जरूरत पड़ रही है। उत्तर कोरिया और वियतनाम दोनों के पास बड़े घरेलू गोला-बारूद कारखाने हैं। यूक्रेन और रूस अब आवश्यक गोला-बारूद की विशाल मात्रा के लिए अन्य देशों पर निर्भर हो रहे हैं। दोनों देश आवश्यक गोला- बारूद के लिए नए साझेदारों की तलाश कर रहे हैं। रूस को उम्मीद है कि उत्तर कोरिया और वियतनाम के साथ ही भारत भी रूस को आवश्यक गोला-बारूद प्रदान करने में मदद कर सकता है। इस युद्ध ने रूसी हथियारों की गुणवत्ता में कमी को भी उजागर कर दिया है।
भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक है। लेकिन पिछले कुछ समय से रूसी हथियारों पर निर्भरता काफी कम हुई है।
पिछले दो दशकों में भारत ने रूस से हथियारों पर ६० बिलियन डॉलर खर्च किए हैं, लेकिन स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, आयात में लगातार गिरावट आ रही है, जो २००९-२०१३ में ७६ प्रतिशत से घटकर पिछले पांच वर्षों में केवल ३६ प्रतिशत रह गया है। साठ के दशक के बाद से यह पहला कालखंड ह,ै जिसमें रूसी रक्षा निर्यात भारत के हथियार आयात के आधे से भी कम रहा। यूक्रेन युद्ध इस गिरावट को और तेज करने वाला है। आयातित उपकरणों के लिए पुर्जे मास्को से खरीदे जाते रहेंगे, लेकिन रूस को अब भविष्य में किसी भी बड़ी खरीद के लिए उपयुक्त नहीं माना जा रहा है। मास्को अब भारत की आवश्यकताओं को पूरा करने की स्थिति में नहीं है। इसका मतलब यह है कि पश्चिमी देशों की कंपनियों पर भारत की निर्भरता बढ़ रही है। यूक्रेन के साथ रूस का युद्ध, पश्चिमी प्रतिबंध, रूस के उपकरणों की गुणवत्ता को लेकर भारत की चिंता, साथ ही स्वदेशी रक्षा उद्योग विकसित करने की इच्छा, इन सभी ने इस बदलाव में अहम भूमिका निभाई है।
भारत रक्षा आयात में गिरावट के बावजूद रूस के साथ अपने संबंधों को मजबूत ही रखेगा। चीन और रूस के लगातार बढ़ते संबंधों से भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है, फिर भी मास्को को अपना मित्र बनाए रखना समझदारी है। लगभग ६५ प्रतिशत भारतीय हार्डवेयर- हेलीकॉप्टर, टैंक और लड़ाकू जेट रूस से ही आयात किए गए हैं।
तो ऐसी स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि मोदी जी रूस क्यों गए। यह सवाल उठ रहा है कि अगर पुतिन से अलग से बात करनी ही थी तो कजाकिस्तान क्यों नहीं गए थे। कजाकिस्तान की राजधानी अस्ताना में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन हुआ था, जो भारतीय प्रधानमंत्री के मास्को रवाना होने से कुछ दिन पहले ३ और ४ जुलाई को हुआ था। वहां विदेश मंत्री एस जयशंकर गए थे। अगर मोदी जी वहां जाते, तो उनका पुतिन से आमना-सामना होता और भारत-रूस संबंधों को देखते हुए, दोनों नेताओं के बीच एससीओ शिखर सम्मेलन के दौरान बातचीत का एक दौर संभव था। तब यह तर्क दिया गया कि मोदी जी ने अमेरिका और पश्चिम के देशों को यह संदेश देने के लिए बैठक में भाग नहीं लिया कि यूक्रेन में रूस की कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय कानून और मानवाधिकारों के सवाल खड़े करती है, तो भारत ऐसी बैठक का हिस्सा नहीं होना चाहता था।
निश्चित तौर पर एससीओ को चीन के प्रभुत्व वाले मंच के रूप में देखा जाता है। नार्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनइजेशन (नाटो) के खिलाफ बने एससीओ और ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, इंडिया, चाइना और साउथ अप्रâीका) दोनों में चीन और रूस के साथ भारत भी सदस्य है। रूस और चीन इन दोनों ही संगठनों का इस्तेमाल अमेरिका के खिलाफ करना चाहते हैं, जिससे बचने की कोशिश भारत की रहती है। लेकिन बात तो वही हो गई। मोदी जी अस्ताना तो नहीं गए, पर मास्को पहुंच गए। तो हासिल क्या हुआ? अमेरिका और पश्चिमी देश तो बिदक ही गए।
अमेरिका ने बयान जारी कर कहा कि वह इस बात से ‘चिंतित’ है कि मोदी पुतिन की अंतरराष्ट्रीय हैसियत को मान्यता दे रहे हैं, जबकि यूक्रेन पर उनकी कार्रवाई के बाद पश्चिम उन्हें घेरने की कोशिश कर रहा है।
कुल मिलाकर मोदी जी की विदेश नीति अब मकड़जाल में फंसती दिख रही है। चीन लगातार आक्रामक होता जा रहा है। २०२० में भारत- चीन सीमा पर खूनी संघर्ष के बाद चीन पर किसी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता। पुतिन से एकांत मुलाकात में क्या चीन की हरकतों का मुद्दा मोदी जी ने उठाया था, इसकी कोई जानकारी सामने नहीं आ रही। किसी तरह के बड़े रक्षा सौदे की भी घोषणा नहीं हुई। कोई बड़ी आर्थिक परियोजना घोषित नहीं हुई। तो फिर मोदी जी वहां गए क्यों थे?
(लेखक कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

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