मुख्यपृष्ठस्तंभमुंबई मिस्ट्री : दलित-शोषितों के संघर्ष की जुबान ...लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे

मुंबई मिस्ट्री : दलित-शोषितों के संघर्ष की जुबान …लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे

विमल मिश्र
मुंबई

लोक कलाकार, गायक, वादक, ‘तमाशा’ उस्‍ताद, कथाकार, कवि, उपन्‍यासकार और स्वतंत्रता सेनानी लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे ने अक्षरज्ञान दुकानों के बोर्ड और फिल्‍मों के पोस्‍टर पढ़कर हासिल किया था और अपने लेखन से दलित-शोषितों के संघर्ष को इस तरह जुबान दी कि वह परिवर्तन की दिशा और प्रेरणा बन गया।

अण्णाभाऊ अस्पृश्य मानी जानेवाली जिस मांग जाति से ताल्लुक रखते थे, उसे सरकार ने अपराधी जाति घोषित कर रखा था। भीषण गरीबी और उच्च जातियों द्वारा भेदभाव के कारण अण्णाभाऊ केवल डेढ़ दिन स्कूल में पढ़ाई कर पाए। भूख शांत करने के लिए परिवार के साथ उन्हें १९३२ में अपने गांव वाटेगांव (सांगली) से बंबई का लगभग ४०० किमी का सफर पैदल ही तय करना पड़ा। ११ वर्ष की उम्र में ठेकेदार के यहां पत्थर तोड़ने और मिल मजदूर के रूप में झाड़ू से सफाई करना, कोयला बीनना, फेरीवाला जैसे कामों से उन्होंने अपने संघर्ष की शुरुआत की।
बागी तेवर
मिल में मजदूरी करते हुए अण्णाभाऊ कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए और उसके सक्रिय सदस्य बन गए। लोकगीतों के माध्यम से कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने लगे। वे ‘लोकयुद्ध’ साप्‍ताहिक और इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन से भी जुड़े रहे। उनके बागी तेवर अंत तक बने रहे। तमाशा कार्यक्रमों के साथ ‘लाल बावटा कलामंच’ के जरिए उन्होंने महाराष्ट्र में कार्यक्रम ही नहीं किए, सरकारी पैâसलों को चुनौती भी दी, जिसके तहत ‘तमाशा’ और ‘लाल बावटा’ को बंद करना पड़ा।
आंदोलनों में भागीदारी
देश का स्वतंत्रता आंदोलन रहा हो या संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन व गोवा मुक्ति आंदोलन-अण्णाभाऊ हर आंदोलन में आगे रहे। महाराष्ट्र में ‘क्रांति सिंह’ के नाम से विख्यात नाना पाटील की प्रेरणा उन्हें आजादी की लड़ाई में लाई थी। सातारा जिले में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन से जुड़े तो ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तारी के लिए वारंट निकाल‌ दिया। अण्णाभाऊ के लिखे पावड़े व लावणियां मुक्ति आंदोलनों की शक्ति बने। १६ अगस्त, १९४७ को जब सारा देश आजादी के जश्न में सराबोर था उन्होंने बारिश में भीगते हुए ६०,००० लोगों के बीच रैली निकाली और इस उद्घोषणा से चौंका दिया कि ‘यह आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है।’
दलित साहित्य के प्रणेता
श्रीपाद अमृत डांगे की साम्यवादी और आंबेडकरवादी विचारधारा से प्रभावित अण्णाभाऊ ने दुकानों के बोर्ड और फिल्‍मों के पोस्‍टर पढ़कर अक्षर ज्ञान हासिल किया था। १९४४ के आसपास उन्होंने लिखना शुरू किया और मुंबई में १९५८ में हुए पहले दलित साहित्य सम्मेलन में उद्घाटन भाषण में उन्होंने कहा था, ‘पृथ्वी शेषनाग के सिर पर नहीं, बल्कि दलितों और श्रमिकों की हथेलियों पर है।’ वह धारणा, जिस पर वे अंत तक टिके रहे। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए अण्णाभाऊ ने कविता, कहानी और नाटकों के रूप में प्रचुर रचनाएं कर दलित-शोषितों के संघर्ष को कुछ इस तरह जुबान दी कि उनका साहित्य परिवर्तन की दिशा और प्रेरणा बन गया। दलित साहित्य का संस्थापक उन्हें ही माना जाता है। उन्होंने ३५ उपन्यास लिखे। उनकी लघु कथाओं के १९ संग्रह हैं, जिनमें से बड़ी संख्या का कई भारतीय भाषाओं और २७ गैर-भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उन्होंने १४ लोकनाट्य, ११ पोवाड़े, ३०० से ऊपर कहानियां, लगभग २५० लावणियां और लोकगीत, वृत्तांत, छह फिल्मों की पटकथाएं भी लिखे हैं। उनकी रचनाओं पर १२ सफल फिल्‍में बनी हैं। १९६१ में अपने रूस दौरे पर उनकी ‘माझा रशियाचा प्रवास’ पुस्तक बहुत चर्चित रही है। इसने उनकी लोकप्रियता रूस में भी फैला दी। जब नेहरू जी रूस गए तो उनसे उनके बारे में दरियाफ्त की गई। इसे दलित साहित्य का पहला यात्रा-वृत्तांत होने का गौरव प्राप्त है। उपन्यास ‘फकीरा’ को महाराष्ट्र सरकार का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास पुरस्कार मिला है।
संघर्षों भरा जीवन
१ अगस्त, १९२० को सांगली जिले के वालवा तालुका के वाटेगांव गांव में भाऊराव साठे और वलूबाई के घर पैदा अण्णाभाऊ का जीवन बहुत संघर्षमय था। मुंबई में रहते जीविका के लिए वे कुली और वेटर बने, मजदूर और घरेलू नौकर रहे, होटल में बर्तन धोए, बूट-पॉलिश की, घर-घर जाकर सामान बेचा। यहां तक कि कुत्तों की देखभाल भी की, पर न तो गरीबी ने उनका पीछा छोड़ा, न परेशानियों ने। उनकी रचनाओं पर `स्थापित साहित्यकारों’ ने बखेड़े किए। उनके लिखे नाटकों के मंचन में रुकावटें पैदा की गर्इं। प्रकाशकों व फिल्म जगत के लोगों ने धोखा दिया। उनके रिश्तेदारों ने भी उनके पास रहा-सहा भी हजम कर लिया। कोंडाबाई और जयवंता से उनके दो विवाहों-दूसरा एक परित्‍यक्‍त महिला से (इन दोनों संबंधों से उनके कुल तीन बच्चे मधुकर, शांता और शकुंतला हुए।) था, में से एक भी नहीं फला। इन निरंतर आघातों ने उन्हें शराब के हवाले कर दिया। मानसिक रोग लग गए। १९६८ में राज्य सरकार ने उन्हें छोटा-सा घर दिया जरूर, लेकिन भायखला, माटुंगा, दादर, कुला, चेंबूर और फिर २२ वर्ष तक घाटकोपर की खोलियों में गरीब मजदूरों के बीच, उन्हीं की तरह रहने वाले भाऊ को नया ठिकाना रास नहीं आया। १८ जुलाई, १९६९ को गोरेगांव में देश का यह महान सपूत अलविदा कह सिर्फ ४९ बरस की उम्र में दुनिया से रुखसत हो गया। देश ने अपने इस गौरवपुत्र को भुलाया नहीं। १ अगस्त, २००२ को भारत सरकार ने उनपर डाक टिकट जारी किया। महाराष्ट्र ने ‘लोकशाहीर’ की उपाधि से सम्मानित किया। पुणे के अलावा मुंबई के चेंबूर में उनके स्मारक और कुर्ला में फ्लाईओवर है। रानीबाग चिड़ियाघर उनके नाम पर एक ओपन एयर थियेटर और घाटकोपर के जिस चिराग नगर में वे रहते थे वहां १७० करोड़ रुपए की लागत से उनका स्मारक बनाने की योजना है। रूस के मास्को में ‘मार्गारीटा रुडोमिनो ऑल रशिया स्टेट लाइब्रेरी फॉर फॉरेन लिटरेचर’ के परिसर में उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गई है।

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