वरिष्ठ कानूनविद की राय
सामना संवाददाता / मुंबई
मुंबई हाई कोर्ट की संभाजीनगर पीठ का एक फैसला काफी चर्चा में है। १८ साल के एक युवक ने एक महिला को अपनी बाइक से टक्कर मार दी थी, जिससे उसकी मौत हो गई थी। निचली अदालत ने आईपीसी की धारा ३०४-ए (किसी की लापरवाही से मौत) के तहत सजा सुनाई। युवक हाई कोर्ट पहुंचा। हाई कोर्ट ने सोमवार, १५ जुलाई को मामले की सुनवाई की और सजा को बरकार रखा, लेकिन युवक को एक बड़ी राहत देते हुए रिहा कर दिया। इस मामले में वरिष्ठ वकील आशुतोष जे दुबे का कहना है कि हाई कोर्ट का यह पैâसला न्याय और करुणा के बीच एक नाजुक संतुलन बनाता है। दुर्घटना के दुखद परिणामों को स्वीकार करते हुए, अदालत ने मामले से जुड़ी अनोखी परिस्थितियों पर विचार किया।
हाई कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करते हुए आशुतोष जे दुबे कहते हैं, ‘जवाबदेही के साथ दया को संतुलित करते हुए न्यायपालिका के अधिकार का सम्मान करना आवश्यक है। यह मामला अपराध की गंभीरता और समाज में सुधार और भविष्य में योगदान की संभावना दोनों को ध्यान में रखते हुए सजा देने में विचारशील न्यायिक विवेक के महत्व को रेखांकित करता है।
बता दें कि ‘लाइव लॉ’ की रिपोर्ट के मुताबिक, हाई कोर्ट के जस्टिस संजय मेहरे ने पैâसला सुनाते हुए कहा, ‘इस मामले में परिस्थितियां और तथ्य थोड़े अजीब और अलग थे। एक्सीडेंट के समय याचिकाकर्ता ने १८ साल की उम्र पूरी ही की थी। वह एक टीनएजर था और उत्साह और खुशी में शायद उसने पहली बार नया वाहन चलाया होगा और नियंत्रण खो दिया होगा। सामान्य तौर पर उसके पास एक्सीडेंट करने का कोई कारण नहीं था। उसका ऐसा कुछ करने का कोई इरादा भी नहीं था।’ कोर्ट ने आगे कहा, ‘उसका कोई आपराधिक इतिहास भी नहीं है। उसने पहली बार अपराध किया था। अभी उसके सामने पूरा उज्ज्वल भविष्य पड़ा है। वो दोषसिद्धि के कलंक को लेकर आशंकित है। इससे (सजा से) उसका भविष्य बर्बाद हो सकता है। इसलिए मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रोबेशन ऑफ ऑफेंडर्स एक्ट की धारा-४ के तहत रिहा करना सही है।’