महाराष्ट्र समेत देश के कई राज्यों में आरक्षण के मुद्दे पर माहौल खराब हो गया है। हर कोई आरक्षण का भूखा है, लेकिन जहां राजनीति में कई समझदार लोगों ने यह रुख अपनाया है कि इसके बारे में बात न करना ही बेहतर है, वहीं पड़ोसी देश बांग्लादेश में आरक्षण को लेकर विरोध भड़क उठा है। अर्थात यह आंदोलन आरक्षण के लिए नहीं, बल्कि नौकरियों में आरक्षण हटाने की मांग को लेकर है। बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों में आरक्षण खत्म करने की मांग को लेकर युवा सड़कों पर उतर आए हैं। यह मुख्य रूप से एक छात्र आंदोलन है। जब छात्र विरोध करने के लिए सड़कों पर उतरते हैं तो सरकार मुश्किल में पड़ जाती है। बांग्लादेश में हो रहे इस हिंसक आंदोलन में अब तक ३९ लोगों की मौत हो चुकी है। राजधानी ढाका में हालात बेकाबू हो गए हैं। छात्रों ने टेलीविजन समेत कई सरकारी इमारतों को घेर लिया है और इसकी वजह से कई पत्रकार और अधिकारी अंदर फंस गए हैं। छात्रों की मांग है कि देश में आरक्षण नहीं होना चाहिए और सब कुछ योग्यता के आधार पर ही होना चाहिए। आरक्षण के मुद्दे पर भले ही महाराष्ट्र में चिंगारी भड़क रही है, लेकिन बांग्लादेश में आग भड़क चुकी है। वहां मराठा, ओबीसी, धनगर, पिछड़ा वर्ग का कोई विवाद नहीं है और इस जाति के लोग आरक्षण की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर भी नहीं बैठे हैं, बल्कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण हटाने के लिए छात्र स्वत:स्फूर्त तरीके से सड़कों पर उतर आए हैं। बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों में ५६ फीसदी आरक्षण है। १९७१ के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने वाले ‘मुक्ति वाहिनी’ आंदोलनकारियों के उत्तराधिकारियों को अधिकतम ३० प्रतिशत आरक्षण दिया गया था। बांग्लादेश १९७१ में आजाद हुआ और इस तरह इसे ५३ साल पूरे हो रहे हैं। नई पीढ़ी का इस स्वतंत्रता आंदोलन के वीरों से कोई भावनात्मक लगाव नहीं बचा है। संघर्ष में भाग लेने वाली वह पीढ़ी आज जीवित नहीं है और उन्हें पहले भी आरक्षण का पर्याप्त लाभ मिल चुका है। इसलिए प्रदर्शनकारियों का कहना है कि इस मामले को अब यहीं खत्म कर देना चाहिए। भारत में आजादी को भले ही ७५ साल हो गए हों, लेकिन स्वतंत्रता सेनानियों की ‘पेंशन’ जारी है। इसी तरह बांग्लादेश में भी इस तरह का आरक्षण शुरू किया गया था। बांग्लादेश में आरक्षण व्यवस्था भारत से अलग है। वर्ष १९७२ में बांग्लादेश में सिविल सर्विस की शुरुआत हुई। प्रारंभ में इनमें से ३० प्रतिशत नौकरियां स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के लिए आरक्षित थीं। १० प्रतिशत नौकरियां उन महिलाओं के लिए थीं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के कारण अपना सब कुछ खो दिया था। कई जिलों में विभिन्न जनजातियों के लिए ४० प्रतिशत आरक्षित किया गया था और शेष २० प्रतिशत मेरिट उम्मीदवारों के लिए रखा गया था। समय के साथ इसमें बदलाव आया, लेकिन ‘मेरिट’ का कोटा ४५ प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ सका। २०१२ में दिव्यांगों के लिए १ फीसदी नौकरियां आरक्षित की गर्इं। अब वहां जो आरक्षण विरोधी आंदोलन भड़का है, वह बांग्लादेश में बढ़ती बेरोजगारी के कारण भड़का है। हिंदुस्थान में भी हर राज्य आरक्षण की समस्या से जूझ रहा है। गुजरात में पटेल, हरियाणा, राजस्थान में जाट, मीणा; महाराष्ट्र में मराठा, धनगर, ओबीसी आरक्षण का बंटवारा हो गया है। कर्नाटक में सभी नौकरियां वहां के कन्नाडिगा के लिए होंगे ऐसा फतवा जाहिर कर दिया गया था, लेकिन फिलहाल इसे स्थगित कर दिया गया है। यह है दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की कोशिश कर रहे हमारे देश की मौजूदा स्थिति। बांग्लादेश और भारत की स्थिति दो ध्रुवों के दो छोर हैं। भारत में बेरोजगारी का महाविस्फोट हुआ है। कोई नौकरियां नहीं हैं। सरकारी उपक्रम ध्वस्त किए जा रहे हैं। राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं में घोटाले सामने आ रहे हैं। युवाओं में एक प्रकार का मोहभंग और हताशा स्पष्ट दिखाई दे रही है। बेरोजगारों को पकौड़े तलने चाहिए, पंक्चर की दुकान खोलनी चाहिए और अगर उससे काम नहीं बने तो धार्मिक अफीम की गोलियां खाकर ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाना चाहिए, ऐसी सोच केंद्र की वर्तमान सरकार की है। बांग्लादेश में आरक्षण की आग वहां की चिंता का विषय है। गुणवत्ता को निश्चित तौर पर महत्व दिया जाना चाहिए, लेकिन भारत जैसे देश की सामाजिक संरचना और सच्चाई को ध्यान में रखते हुए शोषित, वंचित और पिछड़े वर्गों को आरक्षण का संरक्षण जरूरी है। आरक्षण को लेकर बांग्लादेश की आग वहां की सामाजिक सच्चाई की प्रतिक्रिया है और भारत का आरक्षण आंदोलन यहां के सरकार की गलत आर्थिक नीतियों और सामाजिक-आर्थिक दबाव की प्रतिक्रिया है, इस फर्क को समझना चाहिए।