एम.एम.सिंह
पिछले दिनों एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रीवेंशन एक्ट (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार एक व्यक्ति को जमानत दे दी। कोर्ट ने व्यक्ति को जमानत देते हुए इस बात पर जोर दिया कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार अति महत्वपूर्ण और पवित्र है। उस व्यक्ति पर भारतीय मुद्रा की जालसाजी का आरोप था।
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा, `संवैधानिक अदालत को दंडात्मक कानून में प्रतिबंधात्मक वैधानिक प्रावधानों के कारण किसी आरोपी को जमानत देने से नहीं रोका जा सकता है। अगर उसे लगता है कि संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत आरोपी-विचाराधीन कैदी का अधिकार सही है। ऐसी स्थिति में दंडात्मक कानून की व्याख्या के मामले में भी ऐसे वैधानिक प्रतिबंध आड़े नहीं आएंगे, चाहे वह कितना भी कठोर क्यों न हो, संवैधानिक न्यायालय को संवैधानिकता और कानून के शासन के पक्ष में झुकना होगा। जिसका स्वतंत्रता एक आंतरिक हिस्सा है।’ पीठ ने स्पष्ट किया कि यह कहना बहुत गलत है कि किसी विशेष कानून के तहत जमानत नहीं दी जा सकती है।
इसे ऐतिहासिक फैसला इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि न्याय की धीमी गति के कारण व्यक्ति नौ साल से जेल में बंद था। यह फैसला न्यायिक सिद्धांत को दोहराता है कि (बेल, नॉट जेल, इस द बेसिक रूल) `जमानत, जेल नहीं, मूल नियम है’। इसे कानूनी परिदृश्य में एक राहत के रूप में देखा जा सकता है, जहां जमानत देने की अनिच्छा के कारण लंबे समय तक कारावास और महत्वपूर्ण मानवाधिकार संबंधी चिंताएं पैदा हुई हैं। आंकड़े बताते हैं कि उच्च न्यायपालिका भारी संख्या में जमानत आवेदनों से जूझ रही है, जो निचले न्यायिक स्तरों पर जमानत देने में अनिच्छा की परेशान करने वाली प्रवृत्ति को उजागर करती है। लंबे समय तक हिरासत में रखने से अक्सर अभियुक्तों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन होता है, भले ही उनका मुकदमा धीमी गति से आगे बढ़ता हो।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कड़े मामलों में जमानत देने के जरिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बरकरार रखने की दिशा में बदलाव का उदाहरण है। हाल में इस तरह जमानत दिए जाने के मामले स्वागत योग्य हैं। उदाहरण के लिए २०२१ में दिल्ली उच्च न्यायालय ने २०२० के दिल्ली दंगों के संबंध में यूएपीए के तहत आरोपी छात्र कार्यकर्ताओं नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत दे दी। अदालत ने असहमति को दबाने के लिए आतंकवाद विरोधी कानूनों के दुरुपयोग की आलोचना की।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला स्पष्ट करता है कि यूएपीए सहित कोई भी कानून स्वाभाविक रूप से जमानत देने से नहीं रोकता है। यह अंतर महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह इस बात को पुष्ट करता है कि कानूनी सिद्धांतों को उन कठोर व्याख्याओं से प्रभावित नहीं किया जाना चाहिए, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता से समझौता करती हैं। जमानत का मामला जटिल या राजनीतिक रूप से आरोपित नहीं होना चाहिए। यह एक सीधी न्यायिक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य अभियुक्तों के अधिकारों को न्याय के हितों के साथ संतुलित करना है। काबिले गौर है कि जमानत की लगातार अस्वीकृति से आम नागरिक, विशेष रूप से गरीब तबका प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है, जो मुकदमे की प्रतीक्षा में जेल के सीखचों के पीछे हैं।
यह कोई छिपी हुई भी बात नहीं है। अखबारों में इस तरह की कई खबरें छपती रहती हैं कि किस तरह जमानत खारिज किए जाने की वजह से विचाराधीन कैदी कई सालों तक जेल में बंद रहते हैं। इसका सीधा असर उनके परिजनों पर पड़ता है। उसकी गैर मौजूदगी उसके परिवार को सड़क तक ले आ सकती है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐसे वक्त आया है, जब कई विचाराधीन कैदी जमानत के लिए तरस रहे हैं, क्योंकि उनके सुरों को तथाकथित तौर पर बगावती मान लिया गया है। इसमें दो राय नहीं कि हर प्रकार के विचाराधीन कैदी जमानत का इंतजार कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय असंतुलन को दूर करने और यह सुनिश्चित करने की दिशा में एक कदम है कि न्याय न केवल किया गया है, बल्कि किया हुआ दिखाई भी देगा। जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला राहत भरा है।
याद रहे कि १० साल पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से अपने जुर्म की आधी सजा काट चुके करीब ढाई लाख कैदियों को रिहा करने को कहा था। ये वो कैदी थे, जिनके मामले कोर्ट में चल रहे थे और उस वक्त तक उन पर फैसला नहीं आया था। उस समय देश की जेलों में करीब ३.८१ लाख कैदी थे। इनमें से २.५४ लाख विचाराधीन थे। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, `जेलों में मौजूद हर तीसरा कैदी ही अपने अपराध की सजा काट रहा है, बाकी तो जेल में रहकर फैसले का इंतजार कर रहे हैं। धीमी न्याय प्रणाली और कई साल तक चलने वाले मुकदमों की वजह से न उनकी सजा पर फैसला हो पा रहा है, न ही रिहाई। कई तो अपने अपराध के लिए निर्धारित से ज्यादा सजा काट चुके हैं। कई वैâदियों के पास जमानत के पैसे नहीं हैं इसलिए मजबूरी में जेल में रह रहे हैं।’