एम. एम. सिंह
प्रथम ‘प्रधानसेवक’ यानी प्रधानमंत्री मोदी ने ७८ वें स्वतंत्रता दिवस के अपने ९८ मिनट के रिकॉर्ड तोड़ भाषण में बहुत कुछ कहा, कई मसलों को छुआ। हालांकि, मसले राजनीतिक रहे और माहौल बनाने का एक जरिया! जाहिर है जब तीन राज्यों में विधानसभा व यूपी में उपचुनाव का बोझ और लोकसभा नतीजों की टीस हो तो वे देश के प्रधानमंत्री के साथ-साथ अपने दल के सेवक भी होते हैं। पीएम ने बांग्लादेश के हिंदुओं की चिंता जाहिर की, सेकुलर सिविल कोड की बात की, महिलाओं की सुरक्षा, वन नेशन-वन इलेक्शन और भ्रष्टाचार पर भी बोले, लेकिन वे देश के विकास की रूपरेखा बताने की बजाय राजनीतिक मुद्दों में उलझते चले गए। वे लाल किला की प्राचीर से ११वीं बार बोले एक रिकॉर्ड तोड़ना भी उतना ही जरूरी है, इतिहास जो बनाना है!
कभी-कभी लगता है उन्हें देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के भाषणों को सुन लेना चाहिए। नेहरू के कुछ भाषणों पर गौर फरमाएं जो उन्होंने १५ अगस्त के दिन अलग-अलग कालखंडों में दिया है।
‘हम अभी आजादी के रास्ते पर हैं, यह न समझिए कि मंजिल पूरी हो गई, हमें इस देश के एक-एक आदमी को आजाद करना है, अगर देश में कहीं गरीबी है तो (मानना होगा कि) वहां तक आजादी नहीं पहुंची। इसी तरह अगर हम आपस के झगड़ों में फंसे हुए हैं, आपस में बैर है, बीच में दीवारें हैं, हम एक-दूसरे से मिलकर नहीं रहते, तब भी हम पूरे तौर पर आजाद नहीं हैं। हिंदुस्थान के किसी गांव में किसी हिंदुस्थानी को चाहे वह किसी भी जाति का है, अगर उसको खाने-पीने में रहने-चलने में वहां कोई रुकावट है तो वह गांव भी आजाद नहीं है, गिरा हुआ है।’
(१९५४)
‘यहां मैं आपके सामने किसी एक दल की तरफ से नहीं खड़ा हुआ हूं। एक मुसाफिर की तरह से आपके हमसफर के रूप में खड़ा हुआ हूं। इस मुल्क के करोड़ों आदमियों से और आपसे यह दरखास्त करने कि जरा हम अपने दिल में देखें, अपने को और औरों को समझाएं कि इस वक्त (आजादी के ग्यारह बरस बाद) लोग आपस में झगड़ा-फसाद करते हैं, एक-दूसरे को मारते हैं और एक दूसरे की संपत्ति को जलाते हैं तो हमारा फर्ज क्या है, हमारा कर्तव्य क्या है? ष्ठकोई भी पॉलिसी हो, उसमें हम कामयाब एक ही तरह से हो सकते हैं कि हम मिलकर, शांति से, अदम-तशद्दुद से काम करें, नहीं तो हमारी सारी ताकत एक-दूसरे के खिलाफ जाया हो जाती है। अगर हमारी राय में फर्क है तो हम एक दूसरे को समझाएं, एक-दूसरे को अपनाएं और कोई जरिया नहीं है इस मुल्क में और कोई तरीका नहीं है।
(१९५८)
‘आजादी की सालगिरह कोई तमाशा नहीं है। यह एक बार फिर से इकरार करने का दिन है, फिर से प्रतिज्ञा करने का, फिर से जरा अपने दिल में देखने का कि हमने अपना कर्तव्य पूरा किया कि नहीं। आजादी की लड़ाई हमेशा जारी रहती है। कभी उसका अंत नहीं होता। हमेशा उसके लिए परिश्रम करना पड़ता है, हमेशा उसके लिए कुर्बानी करनी पड़ती है, तब वह कायम रहती है। जब कोई मुल्क या कौम ढीली पड़ जाती है, कमजोर हो जाती है, असली बातें भूलकर छोटे झगड़ों में पड़ जाती है, उसी वक्त उसकी आजादी फिसलने लगती है। (१९६०)