मसीहा

सुना है अति अच्छी नहीं होती
शायद मेरे अनुभव भी यही कहते हैं।
अति चाहे दर्द-सुकून की हो
सुख-दुःख की हो
खुशी-ग़म की हो
अमीरी-गरीबी की हो
या फिर विरह-मिलन की हो।
अब हाथ ऊपर उठ रहे हैं,
दुआ के लिए चाहिए एक मसीहा।
जो इन अतिवादिओं को बराबर कर दे
विरह के ग़म को सहला कर कम कर दें।
तभी विरह के बाद मिलन के सूख को पहचान सकुं मैं
तभी दुख-सुख की कद्र कर सकू मैं
अभावों के दर्द पर
सुकून का पैबंद लगा सकूं मैं
अब सोचती हूं, जब अरमान थे
तब कोई ‘मसीहा’ न मिला
और अब,
कोई तमन्ना ही नहीं बची
क्या करुंगी
‘मसीहा’ से मिल कर।

बेला विरदी।

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