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आज और अनुभव : `लाडली बहना’ भई, क्या कहना!

कविता श्रीवास्तव

भाई-बहन के पावन रिश्ते का त्योहार रक्षाबंधन आगामी सोमवार को है। उस दिन सभी बहनें अपने भाइयों को रखी बांधेंगी। भाई भी उन्हें गिफ्ट देने से पीछे नहीं हटेंगे इसीलिए इन दिनों जबर्दस्त खरीददारी जारी है। बाजारों में खूब रौनक है और सोशल मीडिया पर भी धमाल है। इसी बीच `लाडली बहना’ को लेकर भी खूब चर्चाएं हैं। महाराष्ट्र में कुछ दिनों बाद विधानसभा चुनाव होने हैं इसलिए चुनावी रणनीति के तहत सरकार ने यहां मत बटोरने के उद्देश्य से लोकलुभावन `लाडकी बहिण’ योजना का जाल फेंका है। कई शर्तें पूरी करने वाली कुछ महिलाओं के खाते में रकम डालने की इस योजना को मस्त हवा दी जा रही है। वोट बटोरने के लिए राजनीतिक बिसातें बिछाने का मौसम जो आया है। यह लाभ हर बहन के लिए नहीं है।
महाराष्ट्र की महायुति सरकार को `लाडकी बहिण’ योजना का यह आइडिया कुछ अर्से पहले मध्य प्रदेश में तत्कालीन शिवराज सिंह चौहान सरकार द्वारा विधानसभा चुनाव से ठीक पहले शुरू की गई `लाडली बहन योजना’ से मिला है। कहते हैं कि उससे वहां सत्ता पाने में सहायता मिली। लेकिन यह मध्य प्रदेश नहीं महाराष्ट्र है। यहां `लाडकी बहिण’ योजना आते ही भाइयों ने भी सुर आलापा तो सरकार ने भी तत्काल दूसरा पासा फेंका और `लडका भाऊ’ नाम से कुछ युवाओं के खाते में भी पैसे डालने की योजना शुरू कर दी है। अब यह रकम सभी बेरोजगारों, सभी परिवारों के घर में तो आ नहीं रही, क्योंकि इसके लिए कई शर्ते हैं, जिस पर हर परिवार खरा नहीं उतर रहा इसलिए ढेर सारे परिवार नाराज भी हैं।
बहरहाल, बात बहनों की हो रही है और इसी बात पर राज्य के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ने भी यह कहकर सबको चौंका दिया कि अपनी चचेरी बहन सुप्रिया सुले के खिलाफ उन्हें अपनी पत्नी को चुनाव में नहीं खड़ा करना चाहिए था। यह उनकी गलती थी। इसी बीच महाराष्ट्र सरकार की `लाडकी बहिण’ योजना को सुप्रीम कोर्ट ने कुछ झटका सा लगाया है। एक मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार ने कुछ जमीनों का भूमि अधिग्रहण वर्षों पहले किया था, लेकिन वह उसका मुआवजा नहीं चुका रही है। यदि सरकार मुआवजा चुका नहीं सकती है तो वह लोगों को धन वैâसे बांट सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि सरकार मुआवजा नहीं देगी तो वह महाराष्ट्र सरकार की `लाडकी बहिण’ योजना को बंद भी कर सकती है। विधानसभा चुनावों के ठीक पहले इस तरह की बातें सरकार के पसीने भी छुड़ाने लगी है।
इन खबरों पर चर्चाएं सुनने के बाद मुझे अपने बचपन के दिन याद आते हैं, जब सरकारी लाभ के लिए न कोई भेदभाव हुआ करता था न कोई शर्तें हुआ करती थीं। हर किसी को सरकार की ओर से राशन कार्ड दिया जाता था और उसी राशन कार्ड पर सभी को समान रूप से प्रति महीने पर्याप्त राशन, घासलेट आदि मिल जाया करते थे। मुझे अच्छे से याद है कि राशन दुकानों की कतारों में हर घर के लोग लगा करते थे। त्योहारों के मौके पर तेल, चीनी, मैदा, रवा, बेसन जैसी पकवान बनाने वाली सामग्रियां भी बेहद कम दामों पर सरकारी राशन की दुकानों पर सभी परिवारों को मिल जाया करती थीं। इतना ही नहीं सभी परिवार बड़ी खुशी-खुशी पूरी राशन सामग्रियों को अपने घर ले जाया करते थे और पकवान बनाया करते थे।
एक-दूसरे से अलग-अलग व्यंजन बनाने के तरीके भी लोग सीखा करते थे, तब शर्तों को लगाकर भेदभाव जैसा माहौल नहीं हुआ करता था। मैंने महसूस किया है कि तब राशन सामग्रियां राजनीतिक उद्देश्य से नहीं वितरित होती थीं। वह वास्तव में हर घर को प्राप्त हो, हर नागरिक को उसका लाभ मिले इस तरीके से वितरित हुआ करती थी। दशकों पहले चुनावों के दौरान नेतागण आम लोगों से आकर बड़े प्यार से और सम्मान से मिला करते थे। वे लोगों की समस्याओं को अच्छे से सुना भी करते थे और उनके हल भी निकाला करते थे। मैंने मुंबई में देखा है कि नेताजन समय-समय पर लोगों के बीच आया करते थे। केवल चुनावी लाभ के लिए ही वे नहीं आया करते थे। उस दौर में लोगों को रुपए बांटने, उन्हें लुभाने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन आदि देने का चलन नहीं था, तब मुद्दों पर चुनाव लड़े जाते थे। विचारधाराओं पर चुनाव लड़े जाते थे, लेकिन बीते कुछ दशकों में पूरा माहौल बदल गया है। आम जनता का नेताओं से जुड़ाव भी उतना नहीं रहा। अब कार्यकर्ताओं और दलालों ने नेताओं के कार्यालयों में जगह बना ली है। आम मतदाता आज केवल वोट बैंक बनकर रह गया है। राजनीति का स्तर भी बहुत गिर गया है। चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों का व्यवहार व्यावसायिक तरीके का भी बनता जा रहा है। अब चुनाव के वक्त भारी धन खर्च करके आधिकाधिक वोट पाने की होड़ मची रहती है।
वैसे आज भी आम मतदाता विचारों, मुद्दों और आम जनता से सरोकार रखने वाले नेताओं की तलाश करता है। ऐसा नहीं है कि विचारधारा, मुद्दे और आम जनता की समस्याओं को लेकर चलने वाले नेताओं की कमी है, लेकिन भारी शोरगुल में उनकी अहमियत को समझने वालों की संख्या कम जरूर हुई है। आजकल सोशल मीडिया के जरिए भी लोगों में जागरूकता बढ़ी है। लोग अच्छी समझ रखने वाले व आम जनता से सरोकार रखने वाले मुद्दों को लेकर लड़ने वाले नेताओं को पहचानते हैं। इसीलिए चाहे जितनी भी योजनाएं आएं, मतदाता अपने विवेकानुसार अपने मतदान का प्रयोग सही से करते हैं। कमी केवल यह है कि मतदान के प्रति लोग अक्सर उदासीन देखे जाते हैं। उन्हें मतदान कक्ष तक पहुंचाने की योजनाएं शुरू करनी चाहिए। लोगों को इसको बढ़ावा देना जरूरी है, ताकि मतदान का प्रतिशत अधिकाधिक हो और बेहतर सरकारें आम जनता के लिए काम करती दिखें।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)

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