ये कैसा आखेट….

दो पैसे क्या शहर से, लाया अपने गाँव ।
धरती पर टिकते नहीं, अब ‘सौरभ’ के पाँव।।

सपने सारे है पड़े, मोड़े अपने पेट ।
खेल रहा है वक्त भी, ये कैसा आखेट ।।

उलटे लटकोगे यहाँ, ज्यों लटका बेताल ।
अपने हक की बात पर, पूछे अगर सवाल ।।

हीरे-मोती मत दिखा, रख तू अपने साथ ।
सौदागर मैं प्यार का, चाहे तो कर हाथ ।।

नेह-स्नेह सूखे सभी, पाले बैठे बैर ।
अपने गर्दन काटते, देते कन्धा गैर ।

‘सौरभ’ मन गाता रहा, जिनके पावन गीत ।
अंत वही निकले सभी, वो दुश्मन के मीत ।।

ये भी कैसा दौर है, कैसे सोच-विचार ।
घड़ा कहे कुम्हार से, तेरा क्या उपकार ।।

-डॉ. सत्यवान सौरभ

अन्य समाचार