राजेश विक्रांत
मुंबई
इसे कहते हैं कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाय। भाजपा ने देश में अगर अराजकता का जहर बोया है तो उसे खुशहाली का फल कहां से मिलेगा? इसलिए चुनावी राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा व झारखंड में पार्टी ने अपनी सारी ताकत झोंक दी है। बावजूद इसके, पार्टी के प्रास्पेक्टस ब्राइट नहीं नजर आ रहे हैं।
इसलिए देश के जागरूक नागरिक की तरफ से भाजपा को यही कहा जा रहा है कि आप लोग चिंतन, मंथन, शोध, सोच-विचार चाहे जितना करो, इसमें कोई रोक नहीं है, लेकिन मिलनी हार ही है। समुद्र मंथन में १४ अलग-अलग रत्न निकले थे, लेकिन भगवा मंथन में एक से १४ नंबर तक एक परिणाम निकलेगा- नाकामी, नाकामी और नाकामी।
क्योंकि बोलबचन व शोशेबाजी से शासन नहीं चलता, शासन चलता है साफ नीतियों से तथा विकास के प्रति समर्पित सोच से जो कि कल्याणकारी राज्य के लिए जरूरी इच्छाओं को पूरा करती है। इसके बावजूद, अभी भगवा खेमे को लगता है कि वे चिंतन-मंथन से सबकुछ ठीक कर लेंगे। कैसे ठीक होगा? जब नींव ही कमजोर है तो उस पर बनाई गई इमारत कितनी मजबूत होगी?
कुछ दिन पहले २ सितंबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की अखिल भारतीय बैठक में प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर ही लिया कि आरएसएस और उसकी वैचारिक संतान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच कुछ अनसुलझे मुद्दे हैं। पिछले दो-तीन महीनों में आरएसएस प्रमुख सरसंघचालक मोहन भागवत भी भाजपा के सबसे बेरहम आलोचक बनकर उभरे हैं, क्यों?
इसका मूल कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यशैली को जाता है। इसी साल २८ जुलाई को मोदी ने पार्टी के १३ मुख्यमंत्रियों, उप मुख्यमंत्रियों व बड़े नेताओं की एक बैठक बुलाई थी। कहते हैं कि उस बैठक में भी मोदी की कार्यशैली पर दबे-छुपे रूप में उंगलियां उठाई गई थीं।
इसलिए राजनैतिक पंडितों का कहना है कि भगवा खेमा चाहे जितना मंथन कर ले, भाजपा के हिस्से में क्रंदन से ज्यादा कुछ नहीं आएगा, जबकि सागर मंथन से तो काफी कुछ अच्छा भी निकला था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण स्वर्ग श्रीहीन हो गया था और इंद्र सहित सारे देवता शक्तिहीन हो गए थे। ऐसे में सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गए। भगवान विष्णु ने देवताओं को असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने का उपाय बताया और यह भी बताया कि समुद्र मंथन से अमृत की प्राप्ति होगी, जिसे पीकर आप सब अमर हो जाएंगे।
यह बात जब देवताओं ने असुरों के राजा बलि को बताई तो वह भी अमरत्व प्राप्ति के लोभ में समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए। इसके बाद वासुकि नाग की रस्सी बनाई गई और मंदराचल पर्वत की सहायता से समुद्र को मथना प्रारंभ किया गया, जिसके परिणामस्वरूप एक-एक करके समुद्र से हलाहल विष, कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा अप्सरा, देवी लक्ष्मी, वारुणी यानी मदिरा, चंद्रमा, पारिजात, पांचजन्य शंख, भगवान धन्वंतरि और अमृत कुल १४ रत्न निकले थे।
लेकिन भगवा मंथन में सिर्फ और सिर्फ नाकामी ही निकलने वाली है। क्योंकि उत्तर, दक्षिण, पूरब व पश्चिम हर जगह तो उठा-पटक चल रही है। उत्तर में हरियाणा में अभी भी सबसे बड़े नेता मनोहर लाल खट्टर ही हैं। राजस्थान में हाशिए पर धकेली गर्इं पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बेचैनी साफ दिखती है। मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा को कद्दावर नहीं माना जाता है। पंजाब में पुराने बनाम दलबदलू की लड़ाई है। हिमाचल प्रदेश ठाकुर बनाम ठाकुर से जूझ रहा है। पश्चिम में गुजरात मोदी-शाह का गृह राज्य होने के बावजूद भाजपा यहां की सभी २६ लोकसभा सीटें जीतने की हैट्रिक नहीं लगा पाई थी और मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल अब भी राज्य के सर्व स्वीकार नेता नहीं हैं। महाराष्ट्र में दल-बदलुओं की बाढ़ ने स्थानीय भाजपा नेताओं को असहज कर दिया है। पूर्व में उत्तर प्रदेश में वर्चस्व की लड़ाई जारी है, बिहार में नेतृत्व संकट है, जबकि झारखंड में आदिवासी चक्रव्यूह भाजपा के गले की हड्डी बन गया है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की आंधी सब पर भारी है। छत्तीसगढ़ में सत्ता के अनेक केंद्र हैं तो ओडिशा की प्रदेश इकाई कमजोर है। दक्षिण में कर्नाटक की ताकत येदियुरप्पा हैं तो कमजोरी भी येदियुरप्पा हैं।
अगर बात आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर चुनावी राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड की जाए तो हरेक राज्य में भाजपा को कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में भाजपा का महायुति गठबंधन काफी कमजोर स्थिति में नजर आया और विपक्षी गठबंधन महाविकास आघाड़ी ने ४८ में से ३१ सीटें जीत ली। दो बड़े दल शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) को बांट करके विभाजित धड़ों के साथ महायुति की गठबंधन की सरकार बनाई, लेकिन अब यही भाजपा के उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन गई है। फडणवीस अब मराठा आरक्षण आंदोलन को लेकर आलोचनाओं में बुरी तरह से घिरे हुए हैं।
हरियाणा में पार्टी को अपना पारंपरिक वोट बैंक बनाए रखने में नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। वर्तमान मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी फुसफुसे साबित हुए हैं। इन दोनों राज्यो की तुलना में झारखंड ठीक है। यहां पर भाजपा ने लोकसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन किया था। पार्टी ने १४ में से ८ सीटें जीती थीं। देखते हैं कि आदिवासी बनाम आदिवासी की लड़ाई से भाजपा को क्या मिलता है?
कुल मिलाकर यह देखना दिलचस्प होगा कि मंथन के चक्रव्यूह में फंसी भाजपा को कौन अर्जुन निकाल पाने में सफल होता है?
(लेखक तीन दशक से पत्रिकारिता में सक्रिय हैं और ११ पुस्तकों का लेखन-संपादन कर चुके वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं।)